देश कहां जा रहा है - - - _वाइस प्रेसीडेंट आप देश को कहां ले जा रहे हैं - जनता वाह री सरकार_ - - - मीठा-मीठा गप्प और कडवा-कडवा थू

 खरी-अखरी (सवाल उठाते हैं पालकी नहीं) 


देश कहां जा रहा है - - - _वाइस प्रेसीडेंट

आप देश को कहां ले जा रहे हैं - जनता

 वाह री सरकार_ - - -  मीठा-मीठा गप्प और कडवा-कडवा थू

आर्टिकल 142 - उच्चतम न्यायालय की डिक्रियों और आदेशों का प्रवर्तन और प्रगटीकरण आदि के बारे में आदेश - (1) उच्चतम न्यायालय अपनी अधिकारिता का प्रयोग करते हुए ऐसी डिक्री पारित कर सकेगा या ऐसा आदेश कर सकेगा जो अपने समझ लंबित किसी वाद या भविष्य में पूर्ण न्याय करने के लिए (FOR DOING COMPLETE JUSTICE) आवश्यक हो और इस प्रकार पारित डिक्री या किया गया आदेश भारत के राज्य क्षेत्र में सर्वत्र ऐसी रीति से जो संसद द्वारा बनाई गई किसी विधि द्वारा या उसके अधीन विहित की जाय और जब तक इस निमित्त इस प्रकार उपबंध नहीं किया जाता है तब तक ऐसी रीति से जो राष्ट्रपति आदेश द्वारा विहित करे प्रवर्तनीय होगा। (2) संंसद द्वारा इस निमित्त बनाई गई किसी विधि के उपबंधों के अधीन रहते हुए उच्चतम न्यायालय को भारत के सम्पूर्ण राज्य क्षेत्र के बारे में किसी व्यक्ति को हाजिर कराने के, किन्ही दस्तावेजों के प्रगटीकरण या पेश कराने के अथवा अपने किसी अवमान का अन्वेषण करने या दंड देने के प्रयोजन के लिए कोई आदेश करने की समस्त और प्रत्येक शक्ति होगी।

यह संविधान का वह आर्टिकल 142 है जिसका प्रयोग सीजेआई जस्टिस संजीव खन्ना की बैंच ने किया और संविधान की शपथ लेकर संवैधानिक पद पर बैठे उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने इस आर्टिकल 142 को न्यूक्लियर मिसाइल (7×24) कह दिया। इससे तो ऐसा लगता है कि उन्हें संविधान का कोई ज्ञान नहीं है और वे उपराष्ट्रपति जैसे संवैधानिक पद पर बैठने लायक भी नहीं हैं। इसी तरह संसदीय कार्य मंत्री किरण रिजुजू और सांसद निशिकांत दुबे की सुप्रीम कोर्ट पर की गई अनुचित और घटिया निम्नस्तरीय टिप्पणी (चुनौती, धमकी, टकराव) भी उनकी योग्यता पर प्रश्न चिन्ह लगाती हैं। दल और विचारधारा विशेष के लोगों द्वारा सुप्रीम कोर्ट को सुप्रीम कोठा जैसे शब्दों से नवाज कर सुप्रीम कोर्ट की गरिमा पर बदनुमा छींटीकशी की जा रही है और सुप्रीम कोर्ट मौन है। ताज्जुब तो इस बात का है कि आम आदमी पर तो जरा जरा सी बात पर न्यायालयीन अवमानना मानकर स्वमेव संज्ञान ले लेता है मगर जगदीप धनखड़, किरण रिजुजू और निशिकांत दुबे की निम्नस्तरीय और घटिया टिप्पणी पर अभी तक कोई संज्ञान नहीं लिया गया आखिर क्यों? क्या ये संविधान और कानून से ऊपर हैं? यह भी उल्लेखनीय है कि आर्टिकल 142 की शक्ति का उपयोग इसके पहले बाबरी मस्जिद मामले में भी सुप्रीम कोर्ट कर चुकी है। उस समय कोर्ट ने याचिका के बिन्दुओं से बाहर जाकर मुस्लिम समुदाय को मस्जिद के लिए 5 एकड़ जमीन आवंटित करने का जिक्र अपने फैसले में किया था। तब तो किसी ने सुप्रीम कोर्ट को सुप्रीम कोठा नहीं कहा था।

ये वही जगदीप धनखड़ हैं जिनके खिलाफ विपक्ष के 60 सांसदों द्वारा, विपक्ष को हर बात पर टोकते हैं, असहमतियों का मजाक उड़ते हैं, विशेषाधिकार हनन के नोटिस का बेजा इस्तेमाल करते हैं आदि, आरोप लगा कर अविश्वास प्रस्ताव दिया गया था। ये वही जगदीप धनखड़ हैं जिन्होंने पश्चिम बंगाल में राज्यपाल रहते हुए ममता बनर्जी की सरकार के खिलाफ केन्द्र सरकार को भेजी गई अपनी रिपोर्ट में पश्चिम बंगाल करप्शन का अड्डा है, पश्चिम बंगाल में वायलेंस पालिटिकल तौर पर सत्ता खुद करा रही है, पश्चिम बंगाल के भीतर मुस्लिम तुष्टीकरण नहीं बल्कि मुस्लिमों को कानून से ऊपर लाकर रख दिया गया है, पश्चिम बंगाल के भीतर ग्रामीण इलाकों में हिंसा के लिए हथियार कोलकात्ता से सप्लाई हो रहे हैं जैसे वाक्यों को शामिल किया गया है। मतलब राज्यपाल जगदीप धनखड़ कहना चाहते हैं कि राइटर्स बिल्डिंग ममता बनर्जी के लिए सत्ता को बनाये रखने के लिए सिर्फ एक षड्यंत्र का अड्डा है। किसी भी राज्यपाल की भूमिका राज्य को आगे बढ़ाने की होती है न कि रुकावट डालने की। मगर जगदीप धनखड़ हमेशा राज्यपाल कम मोदी सरकार के ऐजेंट के ज्यादा दिखाई दिए और कमोबेश वही भूमिका बतौर उपराष्ट्रपति करते हुए दिखते हैं। किरण रिजुजू और निशिकांत दुबे की मजबूरी को तो समझा जा सकता है क्योंकि फिलहाल वे जहां पर हैं सिर्फ और सिर्फ नरेन्द्र मोदी की दया पर ही हैं।

देश में एक ही पद है राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और चीफ जस्टिस आफ इंडिया का। संविधान के भीतर इसका जिक्र भी है और किसके पास कितनी ताकत है इसका भी जिक्र है। इस बात का भी उल्लेख है कि इन पदों पर बैठे लोग ऐसे काम करें जिससे दुनिया को लगे कि भारत में कानून का राज है और लोकतंत्र बरकरार है।

2014 के पहले ऐसी स्थिति देश में कभी नहीं आई कि सरकार ने सत्ता बरकरार रखने के लिए पहले दिन से ही इस तर्ज पर काम करना शुरू कर दिया हो कि लोकतंत्र के सारे पिलर्स और संविधान की परिभाषा को अपने अनुकूल बनाया जाय। संविधान ने (किसी सरकार ने नहीं) सुप्रीम कोर्ट यह ताकत दी है कि वह किसी भी मामले में पूर्ण न्याय करने के लिए किसी भी हद तक संविधान सम्मत होकर फैसला दे सकता है।और क्या वाकई सत्ता सुप्रीम कोर्ट के फैसले से इतनी भयभीत हो जाती है कि सत्ता के करीबी, सत्ता के चहेते और सत्ता के साथ खड़े लोग यह कहने लगें कि सुप्रीम कोर्ट के पास भी एक न्यूक्लियर मिसाइल है। फिर तो यही कहा जा सकता है कि सत्ता और सत्ता के करीबी संविधान को ताक पर रख कर जिस सुप्रीम कोर्ट के जरिए देशवासियों को उम्मीद और आस है उसे धूमिल करने की कोशिश की जा रही है। 2014 के पहले लोकतंत्र के पिलर चैक एंड बैलेंस का काम करते थे वे इस दौर में डगमगा गए हैं।

2014 - 15 से सरकार ने अपनी सत्ता को बरकरार रखने के लिए जिस तरह से मनमाफिक निर्णय लेने की दिशा में कदम बढ़ाये उसमें जजों की नियुक्ति करने में सरकार की भागीदारी होनी चाहिए क्योंकि न्यायपालिका करप्ट हो चुकी है, जजेज करप्शन में लिप्त हैं, वे परिवार के आसरे चलते हैं इसलिए काॅलेजियम की जगह नेशनल ज्यूडिशियल अपांटमेंट कमेटी बनाई गई यह अलग बात है कि उसे सुप्रीम कोर्ट ने नहीं माना। मनमाने तरीके से नोटबंदी लागू कर दी गई। जीएसटी को इतनी सीढीदार तरीके से लागू किया गया कि पूरा व्यापारी तबका खासतौर पर छोटा और मझोला व्यापारी तबका डगमगाते हुए सरकार पर आश्रित हो गया। संवैधानिक और स्वायत्त संस्थानों में होने वाली नियुक्तियां सरकार ने अपनी हथेली में कैद कर ली यहां तक कि आईएएस आईपीएस जैसी नियुक्तियों के समानांतर बिना कोई एक्जाम प्रोफेशनल की नियुक्ति शुरू कर दी। सीबीआई, सीएजी, सीईसी के प्रमुख पदों पर भर्ती भी सरकार ने अपने हाथ में ले ली। जिससे लोकतंत्र के आसरे कोई चैलेंज, चुनौती देने की स्थिति में खड़ा न हो पाये। देश के भीतर नौकरशाही दंडवत करती नजर आती है। मीडिया दंड़े (लेट कर सरकता हुआ) भरता हुआ दिखाई देता है।

देश की न्यायपालिका और वहां पर बैठे जजों को भी सरकार प्रभावित कर सकती है या नहीं इसका पहला चेहरा सुप्रीम कोर्ट के भीतर 2018 में तब नजर आया जब कोर्ट के इतिहास में पहली बार 4 जजेज इसलिए प्रेस कांफ्रेंस करने के लिए सामने आये कि उनके भीतर सीजेआई द्वारा जजेज को आवंटित किए जा रहे केसों को लेकर असंतोष और आक्रोश था। उन जजों में एक जज वह भी शामिल थे जो आगे चलकर सीजेआई बनने वाला थे इसीलिए वह खुद के ऊपर लगे यौन शोषण की सुनवाई करने वाली बैंच का हिस्सा भी बने और खुद को क्लीन चिट दी अन्यथा सीजेआई बनना नामुमकिन था। प्रेस कांफ्रेंस में जस्टिस रंजन गोगोई ने कहा था कि लोकतंत्र खतरे में है (DEMOCRACY IS DANGEROUS) और वही रंजन गोगोई सीजेआई पद से रिटायर होने के ठीक चौथे महीने मोदी सरकार द्वारा राज्यसभा में मनोनीत कर दिए गए।

सरकार के पास सबसे ज्यादा घातक-मारक न्यूक्लियर मिसाइल तो राज्यपाल नामक जीव होता है। जिसके जरिए कहीं भी किसी भी राज्य सरकार को बर्खास्त करवा कर राष्ट्रपति शासन लगवाया जा सकता है। जिसकी पहली झलक नेहरू काल में केरल की नम्बूदरीपाद सरकार को बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लगने पर दिखी थी। अब तो राज्यपाल की नियुक्ति विशुद्ध रूप से केन्द्रीय सत्ता द्वारा अपने राजनीतिक हितों को साधने के लिए की जाती है। इसका खुला नजारा महाराष्ट्र में दिखा जब उस सुप्रीम कोर्ट को, जो खुद सत्ता के अनुकूल फैसले दे रहा था, कहना पड़ा कि राज्यपाल अवैधानिक तौर पर काम कर रहे हैं।

प्रोटोकॉल और उच्च स्तर पर देखें तो पहली पायदान पर राष्ट्रपति, दूसरी पायदान पर उपराष्ट्रपति और तीसरी पायदान पर प्रधानमंत्री आते हैं लेकिन संविधान के अनुसार राष्ट्रपति को कैबिनेट की सलाह पर काम करना होता है, यहां तक कि संसद सत्र के दौरान राष्ट्रपति का जो अभिभाषण होता है वह भी सरकार द्वारा ही लिखा हुआ होता है जिसका वाचन करते हैं राष्ट्रपति। इसी तरह राज्यपाल को राज्य की काउंसिल ऑफ मिनिस्टर के हिसाब से अपने काम को अंजाम देना होता है। इसका मतलब है कि प्रेसीडेंट का पावर सिवाय कैबिनेट की एडवाइज के अलावा कुछ भी नहीं है। उपराष्ट्रपति पद की अपनी ताकत तो कुछ भी नहीं है। जैसे लोकसभा में स्पीकर होता है और वह किसी पार्टी के पक्ष में न बैठकर बीच में बैठता है। किसी बिल को लेकर वोटिंग हो और दोनों पलडों पर बराबर वोट हों तभी स्पीकर वोट कर सकता है अन्यथा नहीं (पावरलेस) । ठीक इसी तरीके से राज्यसभा में उपराष्ट्रपति होता है सभापति के तौर पर पावरलेस।

जगदीप धनखड़ बतौर उपराष्ट्रपति जिस तरह के भाषण देते हैं और राज्यसभा की कार्रवाई को संचालित करते हैं उससे श्रीमती इंदिरा गांधी काल की वह बात ताजा होती है जब कहा गया था कि "इंदिरा इज इंडिया एंड इंडिया इज इंदिरा" । जिसने ये बात कही थी वह कांग्रेस का व्यक्ति था, इंदिरा गांधी के किचन कैबिनेट का हिस्सा था लेकिन वाइस प्रेसीडेंट कैबिनेट एवं किचन कैबिनेट का हिस्सा नहीं होते हैं।

जब सुप्रीम कोर्ट सत्तानुकूल फैसले देती है तो वह सरकार की आंखों का तारा बन जाती है और जब फैसला सत्ताप्रतिकूल होता है तो वही सुप्रीम कोर्ट सरकार की आंखों में किरकिरी की तरह से खटकने लगता है। मोदी सत्ता को यह नहीं भूलना चाहिए कि देश न तो 1984 को भूला है ना ही 2002 को। बीजेपी यह कैसे भूल सकती है कि आज वो जहां है वह सुप्रीम कोर्ट द्वारा संविधान प्रदत्त शक्तियों का उपयोग करने की वजह से ही है, यदि सुप्रीम कोर्ट ने उन शक्तियों का प्रयोग ना किया होता तो भारत से लोकतंत्र मिट गया होता । 1975 में जब न्यायालय ने श्रीमती इंदिरा गांधी को चुनावी गड़बड़ियों का आरोपी मानकर उनके चुनाव को अमान्य कर दिया था तब श्रीमती इंदिरा गांधी ने पार्लियामेंट में बिल लाकर संविधान संशोधन करते हुए राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और स्पीकर के चुनाव को अदालत के दायरे से बाहर कर दिया था यानी श्रीमती इंदिरा गांधी के चुनाव को सुप्रीम कोर्ट समेत किसी भी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती थी लेकिन राजनारायण केस में इस संविधान संशोधन को चुनौती दी गई और सुप्रीम कोर्ट ने बकायदा उस पर विचार किया और उस संविधान संशोधन को असंवैधानिक घोषित कर दिया गया।

मौजूदा सीजेआई जस्टिस संजीव खन्ना उस परिवार से आते हैं जहां उनके चाचा हंसराज खन्ना भी दिल्ली हाई कोर्ट में जस्टिस रहे हैं। उनके एक फैसले को लेकर तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी इतनी नाराज हुई कि सीजेआई बनने की पहली पायदान पर होने के बावजूद जस्टिस मिर्जा हमीदुल्लाह बेग (एम एच बेग) को सीजेआई बना दिया गया था और जस्टिस हंसराज खन्ना ने अपने स्वाभिमान से समझौता करने के बजाय इस्तीफा दे दिया था।

सीजेआई संजीव खन्ना की बैंच द्वारा वक्फ़ कानून पर दिए गए अंतरिम आदेश पर सत्ता इतनी एग्रेसिव  है और वाइस प्रेसीडेंट, संसदीय कार्य मंत्री, सांसद तथा बीजेपी के पिछलग्गूओं द्वारा जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट के ऊपर छींटाकशी की जा रही है, तो क्या इन टिप्पणियों को इस तरह समझा जाय कि ये सुप्रीम कोर्ट के लिए धमकी और चुनौती है। मौजूदा वक्त में सुप्रीम कोर्ट को लेकर देशवासियों के मन में जिस तरह की हताशा और नाउम्मीदी घर करती जा रही थी तो क्या पहली बार न्यायालय के प्रति ऐसे मामले को लेकर उम्मीद जागी है जहां पर सीजेआई जस्टिस संजीव खन्ना के पास बहुत कम वक्त शेष है।

5 मई से सुनवाई शुरू होगी और सीजेआई जस्टिस खन्ना 12 मई को भूतपूर्व हो जायेंगे। इसके बाद 13 मई को जस्टिस भूषण रामकृष्ण गवई (बी आर गवई) 7 महीने के लिए देश के 52वें चीफ जस्टिस आफ इंडिया की शपथ लेंगे। अपने कार्य दिवस के आखिरी दिन अगर सीजेआई जस्टिस खन्ना की बैंच वक्फ़ मामले में अपना अंतिम निर्णय सुनाती है तो क्या 2014 से चली आ रही परंपरा टूट जायेगी जहां सीजेआई जस्टिस रंजन गोगोई, सीजेआई जस्टिस धनंजय यशवंत चंद्रचूड के दौर के फैसले तो यही बताते हैं कि वे सत्तानुकूल रहे हैं। मोदी सरकार की तिलमिलाहट इसलिए भी समझ में आती है कि सुप्रीम कोर्ट ने उसके द्वारा समय - समय पर विवेकाधीन शक्ति के नाम पर जो खेल खेला जा रहा था उस पर अंकुश लगा दिया है। पिछले एक दशक का सच यह भी है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सीजेआई जस्टिस रंजन गोगोई से मिलने सुप्रीम कोर्ट में उनके दफ्तर गये थे तथा सीजेआई जस्टिस धनंजय यशवंत चंद्रचूड के घर पूजा-पाठ करने गये थे।

संविधान ने संविधान के जरिए सुप्रीम कोर्ट को आर्टिकल 142 के तहत जो पावर दिया है उसके भीतर छिपा निहितार्थ यही है कि संसद बहुमत के नशे में चूर होकर जनता का गला ना घोंट सके। एक संदेश तो बहुत साफ है कि सुप्रीम कोर्ट अगर ईमानदारी के साथ संविधान प्रदत्त शक्तियों का इस्तेमाल करने लगेगा तो अपने हाथ में ऐन केन प्रकारेण सब कुछ समेट लेने को आतुर  मानसिकता वाली सत्ता के लिए बहुत मुश्किल होगी। तो क्या संविधान की शपथ लेने के बाद मौजूदा राजनीतिक सत्ता के भीतर संविधान की ताकत को लेकर भी सवाल है और सुप्रीम कोर्ट उन सवालों को खारिज कर रहा है तो तिलमिलाहट, गुस्सा, आक्रोश और सब कुछ सत्ता के पास होना चाहिए ये चाहत खुले तौर पर अब बतलाई, जतलाई और दिखाई जा रही है।

संविधान विशेषज्ञ पीडीटी आचार्य ने THE HINDU में A RESTORATION OF SANITY TO THE CONSTITUTIONAL SYSTEM नाम से जो लेख लिखा है उसमें उन्होंने संविधान के तहत की गई कोई भी कार्रवाई न्यायिक समीक्षा से परे नहीं है इसलिए राष्ट्रपति और राज्यपाल द्वारा की गई कार्रवाई भी न्यायिक समीक्षा के दायरे में आती है। सुप्रीम कोर्ट ने आर्टिकल 200, 201 की समीक्षा को और विस्तृत किया है। ऐसा करके अदालत ने संवैधानिक प्रक्रिया में संतुलन बहाल किया है।

सत्ताधारी की जब भी सत्ता में पकड़ कमजोर होने लगती है, जब उसे इस बात का अह्सास होने लग जाता है कि जनता को कुछ - कुछ समझ में आने लगा है तभी वह संवैधानिक संस्थानों में जोर का हमला करती है (अंतिम रूप से) ताकि जनता छिटक कर दूर चली जाए और सत्ता हमेशा के लिए उसके हाथ में आ जाय।

अश्वनी बडगैया अधिवक्ता

स्वतंत्र पत्रकार

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