भले ही भारतवासियों ने 2014 में देवों के देव महादेव की ही वसायी नगरी काशी में तथाकथित छद्म हिन्दूवादियों ने "हर - हर महादेव, घर - घर महादेव" के मंत्र को विरूपित करते हुए "हर - हर मोदी, घर - घर मोदी" के नारे में तब्दील कर दिया और काशीवासियों ने महादेव को अपमानित करने वालों को दिल्ली की सत्ता सौंप दी वह भी एक बार नहीं तीन बार। उसका नतीज़ा यह हुआ कि जिसके लिए यह नारा लगाया गया वह सार्वजनिक तौर पर खुद के अवतरित होने का ऐलान करने लगा। स्वाभाविक है कि उसके पिछलग्गू कैसे पीछे रहते। उसी कड़ी में अवतरित बनने के लिए लगभग आउटर खड़े दूसरे क्रम वाले ने देश की सबसे बड़ी पंचायत के भीतर भारतीय संविधान के निर्माता कहे जाने वाले के बारे में ऊलजलूल बोलने में यह सोच कर संकोच नहीं किया होगा कि जब हमारे सरदार को भारतवासियों ने महादेव से ऊपर होने की मुहर लगा ही दी है तो साधारण मानव की औकात ही क्या है। मगर संविधान निर्माता को तकरीबन - तकरीबन भगवान मानने वाले अनुयायियों को यह बात नागवार गुजरी और उन्होंने मामला न्यायालय के पाले में यह सोच कर डाल दिया कि अब संविधान का रक्षक कही जाने वाली अदालत ही संविधान निर्माता के मान सम्मान के साथ न्याय करे।
खबर है कि वह समय भी करीब आ रहा है जब 01 मार्च को देश की सबसे बड़ी अदालत के सबसे बड़े फैसलेकार फैसला सुनाने वाले हैं। इसके साथ ही 3 मार्च को ईवीएम मामले पर भी फैसला सुनाये जाने की खबर है। अब फैसला न्याय होगा या निर्णय या कुछ नहीं यह तो 01 मार्च और 03 मार्च को ही पता लगेगा - तब तक इंतजार करना होगा। वैसे देखा जाए तो पिछले एक दशक में सर्वोच्च अदालत की सबसे ऊंची कुर्सी पर विराजे फैसलेकारों के फैसलों ने निराश ही किया है। डीवाई चंद्रचूड को जब देश की बड़ी अदालत की ऊंची कुर्सी पर बैठाया गया था तो राज्यों की बड़ी अदालतों में दिए गए उनके फैसलों को देख कर देशवासियों के मन में ऐसी धारणा बनी थी कि उनके द्वारा निरंकुश सत्ता द्वारा परोसी जा अराजकता पर नकेल कसी जायेगी और लोगों को न्याय मिलेगा। मगर डीवाई चंद्रचूड ने अपने लम्बे कार्यकाल में जितने भी फैसले दिये उनमें से वे केस जिनमें एक पक्ष सरकार थी उन फैसलों का एक पलड़ा या तो सरकार की तरफ झुका हुआ पक्षपाती नजर आया या फिर फैसला आधा - अधूरा दिखाई दिया। बड़े बुजुर्गों का कहना है कि आधा-अधूरा और देर से दिये गये न्याय को न्याय मानने की जगह अन्याय के बराबर ही माना जाता है। कुल मिलाकर देशवासियों के पहलू में निराशा ही आई है।
पिछले एक दशक में अभी तक तो किसी भी फैसलेकार ने देशवासियों के पक्ष में फैसला देने का साहस नहीं दिखाया है। आज की तारीख में देश की सबसे बड़ी अदालत की सबसे ऊंची कुर्सी पर बैठे हुए विराजमान फैसलेकार से भी देशवासियों ने उम्मीद लगा रखी है कि भले ही उनके कार्यकाल की अवधि कम है फिर भी वे अपनी पारिवारिक न्यायिक पृष्ठभूमि के उजाले में देखकर ऐतिहासिक और साहसिक फैसले सुनाकर इतिहास रचेंगे। मगर कुछ दिनों पहले उनके द्वारा देश के लोकतांत्रिक भविष्य से जुड़े हुए चुनाव आयोग के मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति के मामले में, जिसके सलेक्शन पैनल में खुद सीजेआई के शामिल होने का सवाल निहित था, जिस तरह की लचरता दिखाई है उससे ऐसा लगने लगा है कि उनके कदम भी लड़खड़ाने लगे हैं। जिससे देशवासियों के मन में भी तरह - तरह के सवाल उमड़ने - घुमड़ने लगे हैं। देशवासी सोच रहे हैं कि क्या अदालत सरकार में नम्बर दो की हैसियत और मौजूदा पीएम के रिप्लेसमेंट के रूप में देखे जा रहे मंत्री को निष्पक्षता के साथ सजा, आदेश, कार्रवाई आदि देने-करने का साहस दिखा पायेगी।
ईवीएम मामले वाले फैसले पर भी देशवासियों की नजर है क्या अदालत ईवीएम की पारदर्शिता बनाये रखने की अपनी जिम्मेदारी का ईमानदारी के साथ निर्वहन कर पायेगी या फैसला कहीं लोकतांत्रिक व्यवस्था में काला दिन तो साबित नहीं होगा। सारा दारोमदार सबसे बड़ी अदालत की सबसे ऊंची कुर्सी पर विराजमान फैसलेकार के फैसलों पर टिका हुआ है। जिसे साबित करना है कि न तो अदालत पंगु है न ही सत्ता के पीछे - पीछे चलने वाला संगठन है। न्याय की देवी एक निर्जीव मूर्ति नहीं है बल्कि सचमुच सजीव न्याय की देवी है। कोई खुद को कितना भी बड़ा राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक हस्ती में शुमार कर ले मगर वह कानून से ऊपर नहीं है। हिन्दुस्तान के भीतर इसको साबित करके दिखाया है महामहिम राष्ट्रपति की कुर्सी पर विराजमान रहते हुए श्री वी वी गिरी ने जबकि उस वक्त उनके ऊपर संवैधानिक और वैधानिक तौर पर कोई भी अदालती कार्रवाई नहीं की जा सकती थी। इसी तरह एक मामले में प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव के लिए सुरक्षा की दृष्टि से विज्ञान भवन में अस्थाई तौर पर विशेष अदालती कक्ष बनाया गया था जहां पर हर सुनवाई दिवस पर नरसिम्हा राव उपस्थित होते थे।
हिन्दुस्तान में श्रीमती इंदिरा गांधी से ज्यादा स्ट्रांग प्राइम मिनिस्टर कोई दूसरा अभी तक तो नहीं हुआ है। उस दौर में भी अदालतों ने कार्यपालिका के आगे अपनी अस्मिता को गिरवी नहीं रखा था जैसा वर्तमान दौर में देखने को मिल रहा है। नेहरू काल से लेकर मनमोहन काल तक अदालतों ने प्रधानमंत्री तक को कटघरे में खड़ा करने से परहेज नहीं किया। तो यह कहा जा सकता है कि उस दौर में सत्ता लोकतांत्रिक और संवैधानिक प्रक्रिया के पक्षधरों के हाथों में थी। इसलिए अदालतें बिना भयभीत हुए न्याय करती थीं। मगर किसी भी देश की सत्ता जब फासीवादी सोच वाले लोगों के हाथ में आ जाती है तो सभी डरने लगते हैं फिर चाहे वह आम आदमी हो या देश की सर्वोच्च अदालत।
दुनिया के सबसे पुराने और बड़े लोकतांत्रिक देश अमेरिका की एक निचली अदालत ने हाल ही में निर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प को एक केस में दोषी ठहराते हुए सजा सुनाई है। फैसला चूंकि राष्ट्रपति निर्वाचन का परिणाम आने के बाद सुनाया गया इसलिए अदालत ने लिखा है कि वे चूंकि राष्ट्रपति निर्वाचित हो चुके हैं इसलिए उन्हें गिरफ्तार नहीं किया जायेगा। इस फैसले से साफ जाहिर होता है कि अमेरिका में कानून सर्वोच्च है उसके ऊपर कोई नहीं है। क्या हिन्दुस्तान की ज्यूडीसरी अपने फैसलों से यह साबित करने का प्रयास करेगी कि वह इंडिपेंडेंट है, वह लोकतंत्र की रक्षक है, वह संविधान की पालक है, संविधान की व्याख्या करना उसका काम है। सर्वोच्च अदालत की संविधान पीठ का नैतिक दायित्व बनता है कि वह सरकार और संसद द्वारा किये गये किसी भी संविधान संशोधन का संविधान की रोशनी में पोस्टमार्टम कर देश को बताये कि सरकार-संसद द्वारा किया गया संशोधन उचित है या अनुचित, यदि अनुचित है तो उसे रद्द करे। अगर सुप्रीम कोर्ट ऐसा नहीं कर सकता तो यही माना जायेगा कि देश की रीढ़ की हड्डी कमजोर हो रही है। फिलहाल तो देश की नजर बड़ी अदालत से 1 मार्च को आने वाले फैसले पर टिकी है कि ऊंची कुर्सी पर बैठा फैसलेकार का फैसला संविधान निर्माता के सम्मान को बरकरार रखते हुए इतिहास रचता है या फिर अपमानित करने वाला मुस्करा कर बिना मूंछ के भी मूंछ पर हाथ फेरते हुए बाहर आता है कि मेरा क्या उखाड़ लिया कानून के रक्षकों ने। खुदा-न-खास्ता अगर ऐसा होता तो अफलातून की कही हुई यह बात एक बार फिर से साबित हो जायेगी कि "यह दुनिया का सबसे बड़ा झूठ है कि कानून सबके लिए बराबर होता है, कानून के जाल में केवल छोटी मछलियां फंसती हैं मगरमच्छ उसमें कभी नहीं फंसते वे तो जाल फाड़ कर बाहर निकल आते हैं"। शायद इसी को अदालत के मुंह पर कालिख पुतना कहते होंगे !
जन आवाज भारत का सर्वश्रेष्ठ हिंदी न्यूज चैनल है । जन आवाज न्यूज चैनल राजनीति, मनोरंजन, बॉलीवुड, व्यापार और खेल में नवीनतम समाचारों को शामिल करता है। जन आवाज न्यूज चैनल की लाइव खबरें एवं ब्रेकिंग न्यूज के लिए बने रहें । जन आवाज भारत का आधिकारिक यूटूयब समाचार चैनल है, जो भारत और दुनिया भर से ब्रेकिंग न्यूज़, ताज़ा ख़बर, करंट अफेयर्स और अन्य क्षेत्रों से जुड़ी ख़बरें स्ट्रीम करता है। जन आवाज हिंदी में 24X7 राजनीति, मनोरंजन, बॉलीवुड और खेल आदि से जुड़े क्षेत्रों की ख़बरें. सही और सटीक खबरों के लिए सिर्फ जन आवाज के साथ जुड़े।
Post a Comment