इस नदी की धार से ठंडी हवा आती तो है, नाव जर्जर ही सही लहरों से टकराती तो है

 खरी-अखरी (सवाल उठाते हैं पालकी नहीं) 


कटनी। जस्टिस संजीव खन्ना ने 11 नवम्बर 2024 को भारत के सर्वोच्च न्यायालय में 51 वे चीफ जस्टिस आफ इंडिया का पदभार ग्रहण कर लिया है। महामहिम राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू ने उन्हें पद और गोपनीयता की शपथ दिलाई। जस्टिस संजीव खन्ना 6 माह 1 दिन सीजेआई की कुर्सी पर विराजमान रहेंगे। कहा जा रहा है कि इतने अल्प कार्यकाल में वे क्या कर पायेंगे ? ऐसा नहीं है अगर नैतिक बल हो तो जो इतिहास 60 साल में नहीं रचा जा सकता वो इतिहास 6 माह में रचा जा सकता है और अब तो मास्टर आफ रोस्टर खुद जस्टिस खन्ना हैं। सुप्रीम कोर्ट में बतौर जस्टिस संजीव खन्ना ने जिस तरह के आलोचनात्मक अंतरिम फैसले दिये हैं उनमें मेरिट पर फैसले देकर "देर आये दुरुस्त आये" कर सकते हैं। देखना दिलचस्प होगा कि जस्टिस संजीव खन्ना अपने आइडियल जस्टिस हंसराज खन्ना की तरह न्यायपालिका में अपना नाम स्वर्णिम अक्षरों में लिखाते हैं या फिर जस्टिस रंजन गोगोई, अरुण मिश्रा, धनंजय यशवंत चंद्रचूड की कतार में खड़े होते हैं ।

कहा जाता है  कि तत्कालीन सीजेआई रंजन गोगोई ने 32 न्यायाधीशों की वरिष्ठता को बाईपास कर जस्टिस संजीव खन्ना को कोलेजियम के जरिए सुप्रीम कोर्ट में यह कहते हुए नामिनेट किया था कि "विचार करने योग्य दूसरे नामों के मुकाबले जस्टिस संजीव खन्ना का कार्यकाल बतौर सीजेआई 6 महीने का होगा। तत्कालीन सीजेआई रंजन गोगोई और आने वाले सीजेआईयों को इस सवाल का जवाब देना चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट कोलेजियम किसी जस्टिस का नाम उसके कार्यकाल के आधार पर तय करता है या कि उसकी ईमानदारी और योग्यता के आधार पर तय करता है ? जस्टिस संजीव खन्ना के पिता देवराज खन्ना भी दिल्ली हाईकोर्ट में जस्टिस रहे हैं।

आज जस्टिस संजीव खन्ना के आदर्श पुरुष जस्टिस हंसराज खन्ना (उनके चाचा) का उल्लेख करना निहायत जरूरी है जिन्हें वरिष्ठताक्रम में पहले पायदान पर होने के बावजूद मरहूम प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने सीजेआई नहीं बनने दिया और उनसे कनिष्ठ जस्टिस एम एच बेग को सीजेआई की कुर्सी पर बैठा दिया था । तब अपने स्वाभिमान से समझौता करने के बजाय जस्टिस हंसराज खन्ना ने इस्तीफा देना बेहतर समझा। जस्टिस हंसराज खन्ना से मरहूम पीएम श्रीमती इंदिरा गांधी की नाराजगी का कारण इतना ही था कि इमर्जेंसी के दौरान एडीएम जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला (बियस काॅर्पस) मामले में जहां सीजेआई एएन रे, एम एच बेग, वाईवी चंद्रचूड और पी एन भगवती ने फैसला सुनाते हुए कहा कि "व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार को राज्य के हित में निलंबित किया जा सकता है" तो वहीं जस्टिस हंसराज खन्ना ने अपने फैसले में कहा कि "बिना मुकदमे के एहतियातन हिरासत का कानून उन सभी लोगों के लिए अभिशाप है जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता को पसंद करते हैं। इस तरह का कानून बुनियादी मानवीय स्वतंत्रता में गहरी पैठ बनाता है जिसे हम सभी महत्व देते हैं और जीवन के उच्च मूल्यों में प्रमुख स्थान रखता है"। 1973 में केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य मामले में फैसला देने वाली 13 सदस्यीय न्यायाधीशों की पीठ का हिस्सा भी रहे हैं जस्टिस हंसराज खन्ना। 7 - 6 के बहुमत से पारित एतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के मौलिक स्ट्रक्चर का उल्लंघन करने वाले संशोधनों को रद्द करने के अपने अधिकार पर जोर दिया था। जस्टिस हंसराज खन्ना ने अपने फैसले में लिखा कि "संसद के पास संविधान में संशोधन करने की शक्ति है लेकिन मूल ढांचा बरकरार रहना चाहिए" । यहां यह उल्लेख करना निहायत जरूरी है कि 2016-17 में पुट्टूस्वामी बनाम भारत संघ के फैसले में सुप्रीम कोर्ट की नौ न्यायाधीशों की पीठ ने एडीएम जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला में पारित फैसले को खारिज करते हुए कहा कि जस्टिस हंसराज खन्ना यह मानने में सही थे कि संविधान के तहत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की मान्यता उस अधिकार के अस्तित्व को नकारती नहीं है। इसके अलावा ना ही ऐसी कोई मूर्खतापूर्ण धारणा हो सकती है कि संविधान को अपनाने में भारत के लोगों के मानव व्यक्तित्व के सबसे कीमती पहलुओं अर्थात जीवन, स्वतंत्रता और स्वतंत्रता के उस राज्य को सौंप दिया, जिसकी दया पर वे अधिकार निर्भर होंगे। माना गया कि बहुमत में चार न्यायाधीशों के फैसले "गंभीर रूप से त्रुटिपूर्ण" थे और जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता मानव अस्तित्व के लिए अपरिहार्य है।

एक बात और जस्टिस हंसराज खन्ना ने न तो अपने सिध्दांतों से समझौता किया ना ही अपने साथ किये गये अन्याय का बदला लिया। इसे इस तरह से समझा जा सकता है कि जब इमर्जेंसी के बाद 1977 के आम चुनाव में जनता पार्टी सत्ता में आई तो उसने जस्टिस हंसराज खन्ना को आपातकाल से संबंधित मामलों की जांच करने वाले पैनल का नेतृत्व करने का आफर दिया था परंतु उन्होंने साफतौर पर इंकार कर दिया। जनता पार्टी ने तो लोकसभा चुनाव लड़ने का भी अनुरोध किया था उसे भी उन्होंने ठुकरा दिया था। 1999 में उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया था।

जस्टिस संजीव खन्ना बतौर सीजेआई अपने 6 माह के कार्यालय को अपने निर्णयों से अपने चाचा जस्टिस हंसराज खन्ना की तरह स्वर्णिम अक्षरों में लिखा सकते हैं। जिसके लिए उनको सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट से लुप्तप्राय हो गई स्वत: संज्ञान को आम आदमी को न्याय दिलाने के लिए जिंदा करना पडेगा। सरकार के तराजू में तुलने के बजाय न्यायपालिका की साख बनाये रखनी होगी। सीजेआई पद की गरिमा बनाये रखने के लिए आपको ताकत, ढाढस और नैतिक बल बनाये रखना होगा क्योंकि व्यक्ती से महत्वपूर्ण सीजेआई की कुर्सी है। आपके ऊपर संदेहास्पद स्थिति इसलिए बनी हुई है कि जिस मशीन पर पूरा देश संदेह कर रहा है आपने राजीव कुमार सीईसी की उस मशीन को अभयदान दिया है। जस्टिस रंजन गोगोई पर जब यौन शोषण का आरोप लगा था और उसकी जांच खुद जस्टिस गोगोई ने की थी तब आप भी उसी बैंच का हिस्सा थे मगर लगता है कि आप रंजन गोगोई के अहसान तले दब कर अपना निपष्क्ष फैसला नहीं लिख सके। अब आपके सामने चीफ इलेक्शन कमीशन में कमिश्नरों की चयन प्रक्रिया से सीजेआई को क्योंकर हटाया गया का मामला पेंडिंग है। आपको बिहार की जातीय जनगणना की वैधता वाले मामले को सुनकर फैसला देना है। पदोन्नति में आरक्षण और पत्रकार एम राम बनाम भारत संघ (नरेन्द्र मोदी की बीबीसी द्वारा बनाई गई डाकूमेंट्री पर लगाई गई रोक) के मामलों पर भी आपके निर्णय का इंतजार देश को है।

तत्कालीन सीजेआई धनंजय यशवंत चंद्रचूड के 2 वर्षीय कार्यकाल में देश को उनसे बहुत सारी उम्मीदें थीं क्योंकि उन उम्मीदों को उनने ही जगाया था। उन्होंने निर्णय तो किये मगर न्याय नहीं कर सके । सब कुछ अधर पर छोड़ कर चले गए। न्याय का ही सिध्दांत है कि "न्याय होना पर्याप्त नहीं है न्याय होते हुए भी दिखना चाहिए" । जो शायद कहीं दिखाई नहीं दिया। महाराष्ट्र केस, पेगासस केस, बाबरी मस्जिद केस, चुनाव आयोग से संबंधित मामले आदि इसी कैटेगरी में रखे जा सकते हैं। कुल मिलाकर डीवाई चंद्रचूड के कार्यालय को असफलता की कतार में रखा जा सकता है।

जब न्यायपालिका फेल होती है तो विधायिका तांडव करने लगती है और विधायिका के तांडव पर ढोल बजाने लगती है कार्यपालिका। जब संविधान के तीनों अंग आवारा बन जाते हैं तो जनता के पास सड़क पर उतरने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं होता है। सुनामी देश को तबाह कर देती है और देश का भविष्य गर्त में चला जाता है। जिस तरह से देश में हालात पैदा किए जा रहे हैं उससे तो लगता है कि आने वाले दिनों में आईएएस, आईपीएस को या तो नागपुर या फिर दिल्ली हेडक्वार्टर में ज्वाइनिंग देनी होगी तभी वे नौकरी कर पायेंगे अन्यथा जबरिया रिटायर्मेंट दे दिया जायेगा जैसे कुछ दिनों पहले यूपी में आईपीएस जसवीर सिंह को जबरिया रिटायर कर दिया गया है।

राख़ कितनी राख़ है चारों तरफ़ बिखरी हुई

राख़ में चिनगारियां ही देख अंगारे न देख

अश्वनी बडगैया अधिवक्ता

स्वतंत्र पत्रकार

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