क्षेत्रीय विनाश की ऐसी दलीय एकजुटता कहीं नहीं

_कहाँ तो तय था चिरागाॅं हरेक घर के लिए, कहाँ चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए_ 

कटनी। जगन्नाथ तिराहे से लेकर डॉ गर्ग चौराहे तक की सड़क (जिसे घंटाघर सड़क के नाम से जाना जाता है) आम आदमी के लिए नासूर बन चुकी है। जिसके लिए जितने जिम्मेदार जनप्रतिनिधि और अधिकारी हैं उतने ही जिम्मेदार सड़क के दोनों तटों के रहवासी भी हैं। ऐसा नहीं है कि इस नासूर का इलाज नहीं है - है मगर समाज सेवा का चोला ओढ़े चंद लोग कुछ जनप्रतिनिधियों के हाथों की कठपुतली बने नासूर को लाइलाज बनाने में लगे रहते हैं। और इस सब की चौसर साल में दो बार बिना नागा जगत जननी की चुनरी ओढ़ कर बिछाई जाती है और सारा शहर परेशान होता रहता है। सवाल यह है कि इस पूरे रास्ते में पसरे अतिक्रमण और कुकरमुत्ते की तरह उगे ट्रांसपोर्ट - परचून ट्रांसपोर्ट को हटाने की जब भी मुहिम चलाई जाती है तो कौन हैं वे लोग जो इसका विरोध करने लगते हैं ? क्यों नहीं जनता सड़क पर उतर कर ऐसे लोगों का विरोध कर सबक सिखाती (यदि जिंदा हो तो जिंदा होने का सबूत भी देना होगा) ?

ऐसा ही नजारा 1 अक्टूबर को देखने को मिला जब जनप्रतिनिधियों और अधिकारियों की उदासीनता के कारण शहर ठहर गया। बालक से लेकर वृध्द, बीमार से लेकर स्वस्थ तक हलाकान होते रहे। सारी समस्या की जड़ के जिम्मेदार जनप्रतिनिधि और अधिकारी चाहते तो जगन्नाथ तिराहे पर धरना दे रहे आंदोलनकारियों को मना - पुटिया कर ठहर गये जाम को चंद मिनटों में दूर कर सकते थे मगर ऐसा नहीं किया। ऐसा लगा जैसे वे धरनाकारियों और जाम में फंसे आम आदमी के धैर्य की परीक्षा ले रहे थे तभी तो सुबह 11 बजे से शुरू हुए धरना स्थल पर उनका प्रगटीकरण शाम को 5 बजे के आसपास हुआ। अगर इस बीच कोई अनहोनी घट जाती तो सारा ठीकरा धरनाधारियों पर फोड़ दिया जाता। खबर तो यह भी है कि विधायक कभी अपने पाले में रही महापौर के रास्ते में कांटे बिछाने और उसे हर जगह नीचा दिखाने की गुडकतान में लगे रहते हैं और 1 तारीख के जाम का जन्म भी उनकी कोख से हुआ है (खरी-अखरी इस बात पर न तो विश्वास करता है न ही इसकी पुष्टि करता है) ।

वैसे तो जनप्रतिनिधियों ने अपनी अदूरदर्शिता और अधिकारियों ने अपने निकम्मेपन से शहर की सड़कों को छोड़ दीजिए गली कुलियों को मुर्गी का दबड़ा बना दिया है। 1 अक्टूबर के जाम के लिए तीसरी पारी खेल रहे विधायक की अदूरदर्शिता को भी जिम्मेदार ठहराया जा सकता है, जिसने सागर पुलिया के ऊपर तमाम जद्दोजहद के बाद डेढ़ फुटिया ओवरब्रिज तो बनवाया मगर इसका उतार न तो भट्टा मुहल्ला न ही सुभाष चौक और न ही झंडा बाजार की ओर किया गया जिससे यह डेढ़ फुटिया ओवरब्रिज शहर की 90 परसेंट जनता के लिए नाकारा साबित हो रहा है। जिसकी पीड़ा 1 अक्टूबर को भी शहरवासियों ने भोगी और आगे भी भोगते रहेंगे।

जहां तक बात है "घर के बेटे गोही चाटेंं बाहर के आकर खायें अमावट" की तो यह कटनी के भाग्य से जुड़ चुका ऐसा शास्वत बदनुमा दुर्भाग्य है जिसे मिटाया नहीं जा सकता। राजनीति के मामले में कटनी के नेता शुरू से ही बाहरी नेताओं की चरण वंदना कर नेतागिरी करते चले आ रहे हैं। एकमात्र स्वर्गीय रामदास अग्रवाल ऊर्फ लल्लू भैया को छोड़ दिया जाय तो आज तक कटनी में एक भी सर्वमान्य नेता नहीं हुआ है। हर राजनीतिक पार्टी ने बतौर सांसद कटनी की छाती में हमेशा बाहरी व्यक्ति को बलात बैठाया है और पार्टी के लोग उसके सामने दंडवत होते रहते हैं। चलिए माना कि पार्टी के लोगों की मजबूरी है उसके तलुवे चाटने की। मगर जनता क्यों इतनी मजबूर हो जाती है बाहरी व्यक्ति को अपने सीने पर सांसद, विधायक यहां तक कि वार्ड पार्षद के रूप में बैठाने के लिए, उसके पीछे भागने के लिए।

जहां तक मीडिया की बात है तो उसने बहुत पहले से ही चंद सिक्कों की खनन में अपना ईमान बेचकर जनप्रतिनिधियों से सवाल करना छोड़ उनकी भाटगिरी करना शुरू कर दिया है। इस सबके लिए जनता की चुप्पी ही जिम्मेदार है। अब तो कोई भी सांसद विधायक से तो दूर अपने वार्ड पार्षद से भी सवाल नहीं करता। तो फिर ऐसी जड़वत जनता पर यदि जनप्रतिनिधियों द्वारा जुल्मों सितम किये जाते हैं तो क्या गलत है, अपने गलत कर्मों का फल तो हर किसी को भोगना ही पडता है। ये केवल कटनी विधानसभा में ही नहीं हो रहा है कटनी जिले की ही विजयराघवगढ़ विधानसभा क्षेत्र की जनता भी सालों से आवागमन के लिए बंद महानदी पुल की प्रसव पीड़ा भोगने के लिए विवश है और इस पीड़ा के लिए जनप्रतिनिधि नहीं जनता खुद जिम्मेदार है।

अश्वनी बडगैया अधिवक्ता

स्वतंत्र पत्रकार,

रवि कुमार गुप्ता

Editor-in-Chief

( जन आवाज )

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