ढाई दशक पहले बनाई गई आचार संहिता का खुद ही पालन न कर सके देश के सबसे बड़े न्यायिक मुखिया
न्यायपालिका का अस्तित्व सत्ता के खिलाफ है। सुप्रीम कोर्ट का अस्तित्व केंद्र की सत्ता के खिलाफ बनता है। जनता के अधिकारों को संरक्षित करने का उत्तरदायित्व सुप्रीम कोर्ट का है मगर जब डंडा मारने और डंडा खाने वाले दोनों पुजारी पार्टनर बन जायेंगे और एक जने आरती की थाली घुमायेगा, एक जने आरती आयेगा और एक जने की जानी घंटी बजायेगी तो फिर बताईये सुप्रीम कोर्ट के ऊपर जनता का भरोसा घटेगा या बढेगा ? भारत के इतिहास में नरेन्द्र मोदी ने बतौर प्रधानमंत्री भारत के प्रधान न्यायाधीश से व्यक्तिगत रूप से मिल कर न्यायिक भरोसे को तोड़ने वाले एक अनचाहे विवाद को जन्म दे दिया है।
सबाल किया जा रहा है कि क्या पीएम नरेन्द्र मोदी को अपने घर में मिलने की मंजूरी खुलेआम सीजेआई धनंजय यशवंत चंद्रचूड ने दी थी या नहीं या वे जबरजस्ती उनके घर आ गये (जैसे पाकिस्तान चले गए थे) और अगर बिना बुलावे के आये थे तो उन्हें आने से क्यों नहीं रोका गया ? कुछ ऐसा ही सबाल पीएम नरेन्द्र मोदी से भी पूछा जा रहा है कि चलो आप आ भी गये, आरती भी कर ली, घंटी भी बजा ली, परसाद भी खा लिया, फोटो भी खिंचवा ली मगर वीडियो क्यों बनवाई ? चलो वीडियो बनवा भी लिया तो उसको शेयर कर चौतरफा रायता क्यों फैलाया ?
सीजेआई और पीएम की पुजारी पार्टनर वाली तस्वीर वायरल होते ही कहा जाने लगा है कि देश अनाथ हो गया है। लोग कह रहे हैं कि अब तक एक उम्मीद थी, बीच में उम्मीद कमजोर जरूर हुई थी मगर टूटी नहीं थी, लगता था सत्ता जब अति करेगी तो एक चंद्रचूड है, एक सुप्रीम कोर्ट है, एक सुप्रीम कोर्ट का मुखिया है जो मनमानी करने वालों को रोक सकते हैं मगर अब तो वह आस भी टूट गई, छिन्न भिन्न हो गई है। देश के भीतर और बाहर कानूनविदों से लेकर आम आदमी के बीच इस तरह की टिप्पणी की पैदाइश पीएम मोदी के गणेश उत्सव दौरान सीजेआई चंद्रचूड के घर आकर की गई आरती साझेदारी से हुई है।
बीबीसी की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि 27 साल पहले सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस एम एन वेंकटचेलैय्या (12 फरवरी 1993 - 24 अक्टूबर 1994) ने अपने कार्यकाल के दौरान 7 मई 1993 को न्यायाधीशों के लिए 16 बिन्दुओं का एक दस्तावेज (आचार संहिता) बनाया था जिसका शीर्षक है - न्यायिक जीवन के मूल्यों का पुनर्गठन। जिस तरह से संविधान को देशवासियों ने आत्मसात किया है उसी तरह से जस्टिस वेंकटचेलैय्या द्वारा बनाये गये न्यायिक जीवन के मूल्यों का पुनर्गठन में दिए गए 16 बिन्दुओं को आत्मसात करने की अपेक्षा न्यायाधीशों से की गई है। 1- न्यायाधीशों के व्यवहार और आचरण से न्यायपालिका में विश्वास और पारदर्शिता मजबूत होनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों को ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिए जिससे व्यक्तिगत या आधिकारिक तौर पर न्यायपालिका में विश्वास और पारदर्शिता को खतरा पैदा हो। 2- न्यायाधीश किसी कार्यालय, क्लब, सोसाइटी या अन्य एसोसिएशन के लिए चुनाव नहीं लड़ेंगे। 3- न्यायाधीश को बार के किसी भी सदस्य विशेषकर अपने ही न्यायालय में प्रेक्टिस करने वाले किसी भी सदस्य के साथ घनिष्ठता से बचना चाहिए। 4- न्यायाधीशों को अपने करीबी रिश्तेदारों को वकील के रूप में अपनी अदालतों में लंबित मामलों पर बहस करने की अनुमति नहीं देनी चाहिए। 5- यदि न्यायाधीश के परिवार का कोई सदस्य वकील है तो उन्हें उस घर पर रहने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए जहाँ न्यायाधीश रहते हैं या ऐसे सदस्य के पेशेवर काम के लिए घर का उपयोग करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। 6- न्यायाधीश को अपने आचरण में निष्पक्षता का कड़ाई से पालन करना चाहिए। 7- न्यायाधीशों को अपने परिवार, करीबी रिश्तेदारों या दोस्तों से संबंधित मामलों की सुनवाई अपनी अदालत में नहीं करनी चाहिए। 8- न्यायाधीशों को सार्वजनिक चर्चा में भाग नहीं लेना चाहिए साथ ही किसी को ऐसे मामले में सार्वजनिक रूप से अपनी राय व्यक्त नहीं करनी चाहिए जो राजनीतिक हो, अदालत में लंबित हो या जिसमें अदालत को हस्तक्षेप करना पड़े। 9- न्यायाधीशों के फैसले स्पष्ट होने चाहिए। उन्हें मीडिया को इंटरव्यू नहीं देना चाहिए। यानी उन्हें इतना स्पष्ट होना चाहिए कि अलग से इंटरव्यू देने की जरूरत ना पड़े। 10- न्यायाधीशों को अपने निकटतम परिवार के अलावा अन्य लोगों से उपहार नहीं लेना चाहिए और किसी तरह की राॅयल्टी स्वीकार नहीं करनी चाहिए। 11- न्यायाधीशों को उन कम्पनियों के मामले नहीं उठाने चाहिए जिसमें उनके शेयर हों। न्यायाधीश उन मामलों में सुनवाई नहीं कर सकते हैं जिनमें उन्होंने इसका उद्देश्य बताया हो और किसी अन्य न्यायाधीश ने सुनवाई और फैसले पर आपत्ति न जताई हो। 12- स्टाॅक शेयर आदि में न्यायाधीश किसी भी प्रकार की अटकलें नहीं लगायेंगे। 13- न्यायाधीश को किसी भी व्यक्ति, संगठन और भागीदार के साथ प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से व्यापार नहीं करना चाहिए। 14- किसी भी उद्देश्य के लिए धन जुटाने की प्रक्रिया में न्यायाधीश किसी सदस्यता का अनुरोध नहीं करेंगे और न ही कोई सदस्यता स्वीकार करेंगे साथ ही इसमें सक्रिय रूप से भाग भी नहीं लेंगे। 15- न्यायाधीशों को उनके कार्यालय से संबंधित कोई रियायत, आर्थिक लाभ, सुविधायें या विशेषाधिकार प्राप्त नहीं होंगे जब तक कि स्पष्ट रूप से उल्लेख न किया गया हो। 16- प्रत्येक न्यायाधीश को यह ध्यान रखना चाहिए कि उन्हें आम जनता देख रही है। इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि किसी न्यायाधीश के किसी भी काम या चूक से उनके पद और इस पद के प्रति जनता के सम्मान में कोई कमी न आये।
इन दिशानिर्देशों को न्यायाधीशों के लिए एक प्रकार की आचार संहिता माना जाता है। न्यायपालिका के स्वतंत्र अस्तित्व और स्वायत्तता बनाये रखने के लिए न्यायपालिका में शामिल हर एक व्यक्ति से पद की नैतिकता के आधार पर इन दिशानिर्देशों का पालन करने की उम्मीद की जाती है ताकि देशवासियों का भरोसा न्यायपालिका में बना रहे। लेकिन अब सवाल उठता है कि सीजेआई धनज्जय यशवंत चंद्रचूड ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ मिलकर जो चूक की है, उससे आम जनता के मन में जो संदेह पैदा हुआ है, सुप्रीम कोर्ट के सम्मान एवं न्यायिक भरोसे में जो कमी आई है उसकी भरपाई कैसे होगी ? जस्टिस डीवाई चंद्रचूड ने चीफ जस्टिस आफ इंडिया की शपथ लेने के उपरांत कुछ ऐसा ही तो कहा था कि वे अपने कार्यों से न्यायपालिका और न्याय के प्रति जनता के भरोसे को टूटने नहीं देंगे बल्कि उसे बढ़ायेंगे।
लोकतंत्र के चार स्तम्भों में केवल न्यायपालिका ही तो बची हुई थी जिस पर देशवासियों का थोड़ा बहुत भरोसा कायम था मगर वह भी सीजेआई की चूक (क्योंकि सीजेआई से ही नैतिकता की उम्मीद है) और पीएम की साजिश (नरेन्द्र मोदी से तो नैतिकता की उम्मीद किसी को भी नहीं है) से टूट सा गया है ! विधायिका में तो तकरीबन एक चौथाई से ज्यादा गंभीर प्रकृति, संगीन धाराओं के अपराधों (बलात्कार, यौन उत्पीड़न, अपहरण, डकैती, लूट, हत्या आदि - आदि) के आरोपी माननीय का लेबल लगाये विराजमान हैं। कार्यपालिका तो पिंजरे का तोता बनी मालिक के हाथों मिर्ची खा कर स्तुति गायन कर रही है। लोकतंत्र की कोख (केन्द्रीय चुनाव आयोग) में कैंसर हो गया है। लोकतंत्र का चौथा पाया मीडिया तो घोषित तौर पर भारतीय गणतंत्र का अग्रणी हत्यारा हो चुका है ! जिस मीडिया का काम होता है सत्ता को सवालों के कटघरे में खड़ा करना ताकि सत्ता मनबढई न कर सके मगर इसके उलट दिखाई दे रहा है कि मीडिया सत्ता की चरण वंदना कर रहा है। गोदी मीडिया और उसके लपडझंडिस मिलकर हर दिन चौबीसों घंटे झूठी और नफरती खबरें प्रसारित कर लोकतंत्र को दोहरी मौत मार रहे हैं। और अब तो भारत के प्रधानमंत्री मोदी और न्यायपालिका के प्रधानमंत्री चंद्रचूड दोनों के मिलन ने भगवान गणेश की छबि का सहारा लेकर लोकतंत्र के भरोसे के आधिकारिक सत्यानाश का ऐलान सा कर दिया है !
कटनी से अश्वनी बडगैया अधिवक्ता
स्वतंत्र पत्रकार
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