कौन बनेगा अरविंद का खडाऊंधारी, ईमोशनल कार्ड केजरीवाल की नैया पार लगायेगा या डुबायेगा!

दिल्ली। दूध का जला छांछ भी फूंक - फूंक कर पीता है _दूसरों की गलतियों से सबक सीखने वाला सयाना होता है_।  इन कहावतों को अमली जामा पहनाने की बारी अब आम आदमी पार्टी के संयोजक व दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के जिम्मे आन पड़ी है। जेल से रिहा होने के बाद केजरीवाल ने दो दिन के भीतर सीएम की कुर्सी छोड़ने का ऐलान कर तो दिया है मगर अरविंद की खडाऊं कौन सम्हालेगा इसको लेकर कयास लगाये जाने लगे हैं। मुख्यमंत्री के सबसे प्रबल दावेदार मनीष सिसोदिया को तो खुद केजरीवाल ने यह कहते हुए रेस से बाहर कर दिया है कि वह भी मेरी तरह तब तक मंत्री की कुर्सी पर नहीं बैठेंगे जब तक दिल्ली के मतदाता हमें हमारी ईमानदारी पर मुहर लगाते हुए दुबारा चुनाव में विजयश्री नहीं दिला देते हैं।

इसके बाद भी पार्टी में एक अनार सौ बीमार के हालात बने हुए हैं। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि कुर्सी की महत्वाकांक्षा के दौर में आसान नहीं होगा केजरीवाल के लिए भरोसेमंद कठपुतली का चयन। केजरीवाल के उत्तराधिकारी के रूप सुनीता केजरीवाल, आतिशी, गोपाल राय, सौरभ भारद्वाज, कुलदीप कुमार का नाम प्रमुखता से लिया जा रहा है। कुछ जानकारों का कहना है कि दिल्ली को 72 साल बाद कुलदीप कुमार के रूप में पहला अनुसूचित जाति (बाल्मीकि समुदाय) का मुख्यमंत्री मिल सकता है। क्योंकि 1952 से अभी तक दिल्ली में 7 मुख्यमंत्री बने हैं। दिल्ली के पहले मुख्यमंत्री थे ब्रम्ह प्रकाश यादव, दूसरे गुरुमुख निहाल सिंह, तीसरे मदनलाल खुराना, चौथे साहब सिंह वर्मा, पांचवें सुषमा स्वराज, छठवें शीला दीक्षित और सातवें मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल। इनमें कोई भी मुख्यमंत्री अनुसूचित जाति से नहीं है। अरविंद केजरीवाल ने पूर्वी दिल्ली की सामान्य लोकसभा सीट से कुलदीप कुमार को चुनाव मैदान में उतार कर एससी कार्ड खेला था। यह अलग बात है कि लोकसभा में तुरुप का पत्ता नहीं चला।

राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि हरियाणा और महाराष्ट्र के साथ ही दिल्ली में होने वाले विधानसभा चुनाव के मद्देनजर अनुसूचित जाति के वोटरों को लुभाने के लिए एससी तबके से कुलदीप कुमार को सीएम की कुर्सी पर बैठाया जा सकता है। हरियाणा में अनुसूचित जाति के मतदाताओं की संख्या 21 फीसदी के आसपास है तथा 17 सीटें आरक्षित हैं। इसी तरह महाराष्ट्र में भी रिजर्व सीटें 29 तथा वोटर 13 प्रतिशत के करीब हैं। महिलाओं को आप के पक्ष में करने के लिए आतिशी पर भी दांव लगाया जा सकता है। इसके अलावा गोपाल राय, सौरभ भारद्वाज के साथ ही केजरीवाल की पत्नी श्रीमती सुनीता केजरीवाल पर भी मंथन किये जाने की खबर है।

अरविंद केजरीवाल ने सीएम का पद त्याग करने की घोषणा कर तो दी है मगर उनके सामने अपने उत्तराधिकारी चयन को लेकर उपापोह की स्थिति इसलिए बनी हुई है कारण कि उनकी आंखों के आगे बिहार और झारखंड के घटनाक्रम तैर रहे हैं। बिहार में नितीश कुमार ने अपनी पादुकायें जीतनराम मांझी को और झारखंड में हेमंत सोरेन ने चंपई सोरेन को इस भरोसे के साथ सौंपी थी कि जब वे कहेंगे तो वे उनकी पादुकायें लौटा देंगे। मगर "प्रभुता पाय काह मद नाहीं" को चरिर्तार्थ करते हुए दोनों ने मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़ने में आनाकानी की। पार्टी सदस्यों के दबाववश दोनों ने मुख्यमंत्री की कुर्सी तो छोड़ी मगर आगे चलकर विश्वासघातियों में से एक ने अपनी खुद की पार्टी बनाई और आज दिल्ली सल्तनत की गोद में बैठकर मंत्री पद का लालीपाप चूस रहे हैं तो दूसरे ने प्रदेश के अगले मुख्यमंत्री का सपना पाल कर भाजपा ज्वाइन कर ली है।

अरविंद केजरीवाल की जान भी इसी सांसत में फंसी हुई कि जिस पर भरोसा कर वह अपनी कुर्सी सौंप रहे हैं अगर उसने समय आने पर कुर्सी लौटाने से मना कर दिया तो फिर "माया मिली ना राम" वाली स्थिति हो जायेगी। अभी तक जो नाम सामने आये हैं उनमें सबसे भरोसेमंद नाम दिखाई देता है सुनीता केजरीवाल का। मगर इसमें सबसे बड़ा खतरा है भाजपा। जो दिल्ली में विधानसभाई गद्दी की ओर छींके पर बिल्ली की तरह नजरें गड़ाए बैठी है। सुनीता केजरीवाल का नाम फाइनल होते ही भाजपा और जरखरीद गुलाम बन चुका मीडिया (गोदी मीडिया) परिवारवाद का राशन पानी लेकर चढ़ाई कर देगी।

जेल से रिहा होने के बाद अदालत द्वारा लगाई गई शर्त के चलते केजरीवाल के पास मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़ने का ईमोशनल कार्ड खेलने के अलावा कोई दूसरा चारा नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने अरविंद केजरीवाल को जेल से रिहा तो कर दिया मगर बंदिशें लगाकर उनकी हालत "पर कटे परिंदे" की तरह कर दी है जो खुले आसमान में सांस तो ले सकता परन्तु उड़ नहीं सकता है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा लगाई गई 6 पाबंदियों में से 2 पाबंदी ऐसी हैं जिसने सीएम अरबिंद केजरीवाल को लकवाग्रस्त करके रख दिया है। पहली यह कि केजरीवाल सीएम आफिस और सचिवालय नहीं जायेंगे। दूसरी वे किसी भी सरकारी फाइल पर तब तक दस्तखत नहीं करेंगे जब तक ऐसा करना जरूरी ना हो। जब मुख्यमंत्री अपने कार्यालय और सचिवालय नहीं जा सकता और किसी सरकारी फाइल पर दस्तखत नहीं कर सकता तो फिर वह काहे का मुख्यमंत्री।

मौजूदा विधानसभा का कार्यकाल फरवरी 2025 में पूरा होने जा रहा है। किसी भी मुख्यमंत्री को यदि काम करने से रोक दिया जायेगा तो वह अपने प्रदेश की जनता के खाक काम कर पायेगा। सुप्रीम कोर्ट ने तो गजब का फैसला सुनाया है कि केजरीवाल ऐसी स्थिति में ना तो वे मर सकते हैं ना ही जी सकते हैं। सिवाय सीएम की कुर्सी छोड़ने के और दिल्ली की मोदी सल्तनत भी तो यही चाहती है (मुंह मांगी मुराद) । ऐसे में अगर सुप्रीम कोर्ट पर दिल्ली की सल्तनत के हाथों खेलने का इल्जाम लगता है तो क्या गलत है ! अरविंद केजरीवाल ने केंचुआ से नवम्बर में महाराष्ट्र विधानसभा के साथ दिल्ली विधानसभा का भी चुनाव कराने की मांग की है मगर पूरा देश जानता है कि केंचुआ का प्रमुख तभी चुनाव करायेगा जब दिल्ली की गद्दी पर बैठे मोदी - शाह चाहेंगे उनकी मर्जी के बिना अपने चेहरे पर बैठी मक्खी को उडाने की भी हैसियत नहीं है केंद्रीय चुनाव आयोग की !

अश्वनी बडगैया अधिवक्ता

स्वतंत्र पत्रकार

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