(सवाल उठाते हैं पालकी नहीं) इतिहास ने खुद का एक पक्ष दुहराया, दूसरा पक्ष दुहराने वाला बुजदिल निकला

कटनी। कहते हैं इतिहास अपने आपको को दुहराता है। ऐसा ही कुछ 2024 में भाजपा के साथ 20 साल बाद हो गया है। जब 400 पार के नारे के उडनखटोले में सवार मोदी भाजपा तीसरी बार चुनाव में उतरी थी मगर अपने बूते सत्ताई कुर्सी में बैठने के लिए जादुई आंकड़े 272 से वह तीन दर्जन सीटों से पिछड़ गई। यह अलग बात है कि गठबंधन (नेशनल डेमोक्रेटिक एलायंस) ने बहुमत का आंकड़ा जुटा लिया है। हांं तो ऐसा ही कुछ घटा था 20 साल पहले 2004 में तब की भाजपा (जनसंघ के नये कलेवर) के गठन कर्ताओं में से एक अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के साथ जब वह शाइनिंग इंडिया के नारे के साथ तय समय से पहले कराये गये लोकसभा चुनाव उतरे थे ।

तब बाजपेई सरकार 139 सीटों पर सिमट गई थी तथा कांग्रेस 145 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी। दोनों पार्टियों के पास अपने बूते सरकार बनाने के लिए जरूरी 272 सीटें नहीं थी मगर यूपीए के पास बहुमत का आंकड़ा था। 15 मई को कांग्रेस ने अपने संसदीय दल के नेता के रूप में श्रीमती सोनिया गांधी को चुना। Javiermoro - The Red Sari - A Dramatized Biography of Sonia Gandhi में लिखा है कि जब 15 मई को कांग्रेस संसदीय दल ने उन्हें अपना नेता चुन लिया तो एक पत्रकार ने सोनिया से पूछा - क्या संसदीय दल का नेता ही अगला पीएम होगा ? सोनिया बोली - परम्परा तो यही है। तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ एपीजे अब्दुल कलाम ने अपनी पुस्तक "टर्निंग पाॅइंट्स - ए जर्नी थ्रू चैलेंजेस" में लिखा है कि वे तीन दिनों तक इंतजार करते रहे कि कोई सरकार बनाने का दावा करने उनके पास आयेगा। 18 मई को दोपहर 12.15 बजे श्रीमती सोनिया गांधी आईं तथा उन्होंने कहा कि उनके पास सरकार बनाने के लिए पर्याप्त संख्या बल है परन्तु आज मैं वह सहमति पत्र साथ नहीं लाई इसलिए मैं कल पुनः आपके पास समर्थन पत्र के साथ आऊंगी।

स्वाभाविक रूप से राष्ट्रपति डॉ कलाम ने माना कि जब श्रीमती सोनिया गांधी संसदीय दल की नेता चुन लीं गई हैं तो पीएम पद की शपथ भी वही लेंगी। इस पर राष्ट्रपति कार्यालय ने शपथ ग्रहण समारोह की तैयारियों के साथ आमंत्रण पत्र पर काम शुरू किया और उस पर बाकायदा श्रीमती सोनिया गांधी का नाम लिखा गया। मगर करीब - करीब अंतिम चरण में पहुंच चुकी सारी तैयारियों के बीच उन्हें अचानक खबर मिली कि प्रधानमंत्री के रूप में श्रीमती सोनिया गांधी नहीं डाॅ मनमोहन सिंह (विश्व विख्यात अर्थशास्त्री,  भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर) शपथ ग्रहण करेंगे। यह सत्य है कि श्रीमती सोनिया गांधी ने पीएम का पद किसी दबाव में नहीं बल्कि अपनी स्वेच्छा से छोड़ा था। यह अलग बात है कि भाजपाई इस सच्चाई को स्वीकार करने के बजाय यह मानकर चलते हैं कि सोनिया गांधी ने पीएम पद छोड़ने का फैसला भाजपाई नेताओं के छाती पीटो रुदन खासतौर पर भाजपा नेत्री श्रीमती सुषमा स्वराज की धमकी, कि यदि सोनिया ने पीएम पद की शपथ ली तो वे मुंडन करा लेंगी, के कारण लिया था।

कुछ ऐसी ही नजीर कांग्रेस ने 1989 में भी देश के सामने पेश की थी। 1984 में दुर्गा अवतार (अटल बिहारी वाजपेयी उवाच) श्रीमती इंदिरा गांधी की निर्मम हत्या के बाद हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने राजीव गांधी की अगुवाई में 414 सीटें जीतने का रिकॉर्ड बनाया था जिसे आज तक कोई भी राजनीतिक दल छू तक नहीं पाया है तथा निकट भविष्य में भी इसके करीब पहुंचने के आसार दूर - दूर तक दिखाई नहीं दे रहे हैं। हां तो 1989 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 197 और विरोधी जनता दल को 143 सीटें मिली थी। सरकार बनाने के लिए जरूरी संख्या बल नहीं होने के बाद भी कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी थी और जोड़-तोड़ कर सरकार बनाने का दावा पेश कर सकती थी मगर राजीव गांधी ने यह कहते हुए सरकार बनाने से इंकार कर दिया था कि जनादेश हमारे खिलाफ है। ठीक भी है कि जो पार्टी पांच साल पहले 414 सीटें जीत कर सरकार बनाती है और पांच साल बाद वही पार्टी 197 पर सिमट जाती है तो इसे खिलाफती जनादेश ही तो कहा जायेगा उस सरकार के लिए । मगर यह भी अकाट्य सत्य है कि इस तरह के जनादेश का सम्मान करने तथा लोकतांत्रिक मर्यादाओं का पालन करने के लिए नैतिक बल और आत्मिक इच्छा शक्ति की आवश्यकता पड़ती है।

कुछ ऐसी ही स्थिति 2024 के लोकसभा चुनाव परिणामों ने मोदी भाजपा के सामने खड़ी कर दी है। 2019 में जिस मोदी भाजपा को जनता से सिर पर बैठाकर 303 सीटें दी थी उसी जनता ने पांच साल बाद 2024 में मोदी भाजपा को झटकार कर 240 सीटों पर समेट दिया है। जिसे निश्चित रूप से मोदी सरकार के खिलाफ जनादेश ही कहा जायेगा। मगर जिस तरह के अमर्यादित, अलोकतांत्रिक तरीके अपना कर नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली है उसे इतिहास काले अक्षरों में नरेन्द्र मोदी की कायरता के रूप में दर्ज करेगा ! जिस तरह से 2014 और 2019 में भाजपा संसदीय दल की बैठक में तत्कालीन नवनिर्वाचित सांसदों ने मान्य परम्परा का निर्वहन करते हुए नरेन्द्र मोदी को अपना नेता चुना था वैसा कुछ भी 2024 में नहीं किया गया है । भाजपा के नव निर्वाचित सांसदों की अलग से बैठक बुलाकर खुद के नाम पर नेता चुने जाने का ठप्पा लगवाना तो छोड़िए मोदी ने तो अपने 239 सांसदों को इकट्ठा बैठाकर यह तक बताने के लाईक नहीं समझा कि मैंने अपने आपको खुद ही तुम्हारा नेता चुन लिया है। अब देशवासियों द्वारा भाजपा के इन 239 सांसदों को रीढ़ विहीन भेड़ बकरियां ना कहा जाय तो फिर क्या कहा जाय ? क्या इस बार नरेन्द्र मोदी इतने भयभीत थे कि यदि भाजपा के नवनिर्वाचित 240 सांसदों की अलग बैठक में संसदीय दल के नेता का चुनाव किया जायेगा तो चार सांसद भी उनको कांधा देने आगे नहीं आयेंगे। इसीलिए एक डरपोक तानाशाह की तरह उन्होंने मान्य परम्पराओं को ध्वस्त कर दिया है। और एनडीए की एकजाई बैठक बुलाकर खुद के नाम पर नेता चुने जाने की मोहर लगवा ली। वाह मोदी वाह।

1951 में गठित भारतीय जनसंघ का नया कलेवर 6 अप्रैल 1980 को भारतीय जनता पार्टी के रूप में अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, मुरलीधर मनोहर जोशी जैसे खांटी नेताओं के सानिध्य में सामने आया था। भाजपा के इन संस्थापकों को क्या पता था कि हमारे बीच में से ही कोई ऐसा अति महत्वाकांक्षी व्यक्ति भी निकलकर सामने आ सकता है जो अपनी महत्वाकांक्षा पूरी करने के लिए 34 साला अल्पायु वाली भाजपा का गला घोंट देगा। मगर ऐसा हुआ जब 2014 में प्रधानमंत्री बनने की अपनी महत्वाकांक्षा पूरी करने के लिए नरेन्द्र मोदी नामक व्यक्ति ने भाजपा का गला घोंट कर उसे मोदी भाजपा में तब्दील कर दिया। फिर भी उसने पुरखों की मान्य परम्पराओं को 10 साल तक जिंदा रखा। आखिर लाश को कब तक कांधे पर ढोया जा सकता है ! तो फिर उस व्यक्ति ने 09 जून 2024 को बाजपेई, आडवाणी, जोशी की परम्पराओं को भी 2014 की लाश के साथ सुपुर्द-ए-खाक कर दिया।

इतना ही नहीं अक्टूबर 1951 में भारतीय जनसंघ को स्थापित करने के बाद तत्कालीन सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर ने कहा था कि यह गज्जर की पुंगी है जब तक बजेगी बजायेंगे और जब नहीं बजेगी तो खा जायेंगे। गोलवलकर ने सपने में भी कल्पना नहीं की होगी कि जिस राजनीतिक पार्टी भारतीय जनसंघ को वो खा जाने की बात कह रहे थे उसके नये कलेवर के रूप में भारतीय जनता पार्टी नामक एक पौधा जन्म लेगा और उस पौधे से ऐसा कालकूटधारी पैदा होगा जो भाजपा और पितृ पुरुष राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ दोनों को ही निगल जायेगा। और ऐसा होता दिखाई दे भी रहा है। जिसके संकेत पिछले महीने भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जयप्रकाश नड्डा ने यह कर दे दिए थे कि अब भाजपा को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की कोई जरूरत नहीं है, वह अपने निर्णय लेने में सक्षम हो चुकी है (यूज एंड थ्रो)।

तो सवाल उठना लाजिमी है कि क्या अब आरएसएस भाजपा में भेजे गए अपने प्रचारकों (संगठन मंत्रियों) को ससम्मान तत्काल वापस बुला लेगा या फिर मोदी पार्टी द्वारा भगाये जाने का इंतजार करेगा ? यही बात संगठन मंत्रीयों पर भी लागू होती है। क्या संघ प्रमुख मोहन भागवत मोदी द्वारा दी जेड प्लस सुरक्षा कवच को वापस कर अपने स्वयंसेवकों के अभेद्य सुरक्षा कवच में लौटेंगे या फिर जेड प्लस सुरक्षाकर्मियों को वापस बुलाये जाने का रास्ता देखेंगे ? पिछले 9 सालों से सह रहे उपेक्षात्मक रवैये से कहीं आरएसएस इस बात से भयभीत तो नहीं हो गया है कि अपंजीकृत संगठन होने के बाद भी मिल रही अनेकानेक सुख - सुविधाओं पर ईडी, आईटी, सीबीआई की जांच ना बैठा दे पीएम नरेन्द्र मोदी !

अश्वनी बडगैया अधिवक्ता

स्वतंत्र पत्रकार

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