न्यायिक गलियारे में भी उग आई गोदी लाॅबी
कटनी। इन दिनों दो चीजें समानांतर चल रही हैं। लोकसभा का चुनाव और चुनाव के बीच लोकतंत्र और संविधान के मूल्यों को बचाये रखने के लिए सुप्रीम कोर्ट की कार्रवाई। आम चुनाव में इंडिया एलायंस और विपक्ष से प्रत्यक्षतः और सुप्रीम कोर्ट के फैसलों से मिल रही अप्रत्यक्ष चुनौतियों से तीसरी पारी खेलने को बेकरार मोदी और उसकी भाजपा की नींद उड़ी हुई है। विपक्षियों और जनता को भरमाने के लिए तो गोदी मीडिया पहले से ही जी-जान से लगी हुई है। सुप्रीम कोर्ट के सीजेआई डीवाई चंद्रचूड द्वारा जिस तरह से मोदी सरकार के किए गए कुछ कार्यों को असंवैधानिक करार देते हुए निर्णय पारित किए जा रहे हैं उससे भी मोदी सरकार सकपकाई हुई है। सीजेआई डीवाई चंद्रचूड को जिस तरह से पहले सीनियर वकील हरीश साल्वे सहित छै सैकड़ा वकीलों के एक गुट ने तो एक पखवाड़े बाद 21 सेवानिवृत न्यायाधीशों के समूह ने पत्र लिखा है उसे न्यायपालिका की रिटायर्ड गोदी लाॅबी कहा जा रहा है।
वकीलों के गुट द्वारा लिखे गए पत्र पर सीजेआई ने उन्हें यह कहते हुए नसीहत दे दी है कि "सरकार नहीं संविधान के वफादार बने"। न्यायमूर्ति (सेवानिवृत) दीपक वर्मा, कृष्ण मुरारी, दिनेश माहेश्वरी, एम आर शाह सहित 21 जजों ने "न्यायपालिका को अनावश्यक दबाव से बचाने की आवश्यकता" शीर्षक से लिखे पत्र का कुल जमा लब्बोलुआब यह है कि कुछ लोगों द्वारा राजनीतिक हितों और व्यक्तिगत लाभ के वशीभूत होकर अदालतों और न्यायाधीशों की ईमानदारी पर सवाल उठाकर न्यायिक प्रक्रिया को प्रभावित करने का प्रयास किया जा रहा है। जिससे न्यायिक प्रणाली के प्रति जनता का विश्वास कम हो सके। रिटायर्ड जजों ने सीजेआई को ऐसे समय पर पत्र लिखा है जब सुप्रीम कोर्ट ईवीएम पर सुनवाई कर रही है। यही कारण है कि इन्हें गोदी मीडिया की तरह ही न्यायपालिका की रिटायर्ड गोदी लाॅबी कहा जा रहा है। बताया जाता है कि सीजेआई को लिखे गए रिटायर्ड जजों के पत्र पर अपने विचार व्यक्त करते हुए जस्टिस एन एन ढींगरा का कहना है कि "जब किसी व्यक्ति को पूछताछ और जांच के नाम पर 6 - 6 महीने जेल में रखा जाता है और बाद में यह कहते हुए कि सबूत नहीं है छोड़ने के लिए जमानत दे दी जाती है। न्यायपालिका द्वारा किए जा रहे इस तरह के न्याय पर भारत की जनता क्यों कर विश्वास करेगी न्यायपालिका पर। पूछताछ और जांच के नाम पर जिसकी जिंदगी बर्बाद करने का अपराध हुआ है क्या उसको न्याय मिलेगा। केवल पूछताछ और जांच के नाम पर महीनों तक लोगों को जेल में बंद रखा जाता है इसके लिए क्या हमारी न्यायपालिका और जज जिम्मेदार नहीं हैं ? क्या इसकी वजह से दुनिया भर में भारत की न्यायपालिका की बदनामी नहीं हो रही है ? न्यायपालिका भी अगर राजनीतिक पार्टियों की मदद करने लगी तो देश में संविधान और लोकतंत्र ही नहीं बचेगा"। सुप्रीम कोर्ट से लेकर निचली अदालतों के जजों को जिस तरह से रिटायर्मेंट के बाद राजनीतिक पार्टियां लाभ देती हैं उससे न्यायपालिका की गरिमा को ठेस ही लगती है। शोले पिक्चर में एक डायलॉग है "गांव में जब बच्चा रोता है तो मां कहती है सो जा नहीं तो गब्बर आ जायेगा" इसी तर्ज पर काॅलेजियम को लेकर कहा जाने लगा है कि "भारत में किसी जज के घर जब बच्चा पैदा होता है तो नर्स कहती है कि भारत को एक और जज मिल गया"।
मोदी द्वारा 2024 का चुनाव प्रेसिडेंशियल शैली में संसदीय लोकतंत्र के नाम की लड़ाई लड़ी जा रही है। मोदी के 10 वर्षीय कार्यकाल का सबसे बड़ा घोटाला इलेक्टोरल बांड्स को कहा जा रहा है जिसे सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक करार देकर रद्द कर दिया है। इलेक्टोरल बांड्स पर दिए गए फैसले को लोकतंत्र को मरने से बचाने की एक कोशिश के रूप में देखा जा रहा है। कोर्ट ने इलेक्टोरल बांड्स को अज्ञात रखना सूचना के अधिकार और अनुच्छेद 19(1)(ए) का उल्लंघन के साथ ही मतदाताओं के साथ विश्वासघात भी माना है। वैसे तो भारत निर्वाचन आयोग ने कहा था कि चंदा देने वालों के नाम गुमनाम रखने से पता लगाना संभव नहीं होगा कि राजनीतिक दल ने धारा 29(बी) का उल्लंघन कर चंदा लिया या नहीं विदेशी चंदा लेने वाला कानून भी बेकार हो जायेगा और भारतीय रिजर्व बैंक ने कहा कि मनी लांड्रिंग को बढ़ावा देगा, इसके जरिए ब्लैकमनी को व्हाइट करना संभव होगा। जो जानकारियां निकल कर सामने आ रही हैं उनके अनुसार तो पाकिस्तानी कंपनी के साथ ही बीफ और मौत बेचने वाली कंपनी से भी चुनावी चंदा लिया गया है।
दो दर्जन न्यायमूर्तियों और छै सैकड़ा वकीलों ने सीजेआई को ऐसे समय पर पत्र लिखा जब सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस संजीव खन्ना और जस्टिस दीपांकर दत्ता की खंडपीठ ईवीएम पर सुनवाई कर फैसला देने की दहलीज पर खड़ी है और मोदी सरकार की सांसें उखड़ी हुई है। इनके पत्र को क्यों न न्यायपालिका पर दबाव बनाने के तौर पर देखा जाय ! चुनाव आयोग जिस तरह से ईवीएम और वीवीपैड को लेकर दलीलें दे रहा है उससे साफ है कि उसे न तो जनता के भरोसे को कायम रखने की चिंता है न ही अपनी विश्वसनीयता बनाये रखने की। उसे तो चुनाव की निष्पक्षता और पारदर्शिता बनाये रखने से ज्यादा दिलचस्पी मोदी सरकार को बनाये रखने में है। चुनाव की निष्पक्षता और पारदर्शिता बनाये रखने के लिए जरूरी है मतदान के दौरान निकलने वाली वीवीपैड पर्ची वोटर के हाथ में देना जिस पर वह अंगूठा या दस्तखत कर डिब्बे में डाले। मतगणना के समय ईवीएम और पर्चियों का शतप्रतिशत मिलान किया जाय। मतगणना पश्चात पैदा होने वाले लिटिगेशन के लिए पर्चियों को सुरक्षित रखा जाय। मगर केंचुआ इसे समय की बरबादी बताता है। उसकी दलील है कि शतप्रतिशत पर्ची मिलान करने से चुनाव परिणाम घोषित करने में समय लगेगा। लोकतंत्र के महायज्ञ में जिस वोटिंग को एक पखवाड़े के भीतर सम्पन्न कराया जा सकता है उसे वह तीन पखवाड़े से ज्यादा समय में सम्पन्न करता है तो अगर चुनाव परिणाम घोषित करने में दो - चार दिन ज्यादा लग जायेंगे तो केंचुआ के पेट में ऐंठन क्योंकर उठनी चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट को ईवीएम पर बहस पश्चात जिस फैसले को 19 अप्रैल तक सुना देना चाहिए था उस पर फैसला सुरक्षित रख लिया गया है। अब फैसला चाहे जब आये जो आये लोकतंत्र और जनता के अधिकारों के साथ तो अन्याय ही कहा जायेगा। (देर से मिलने वाला न्याय भी अन्याय के बराबर ही कहा जाता है) क्योंकि शुरू हो चुकी वोटिंग को तो पलटा नहीं जायेगा। शतप्रतिशत पर्चियों की गिनती के बिना बनने वाली सरकार की क्रेडिबिलटी शून्य होगी। केंद्रीय चुनाव आयोग (केंचुआ) की नियत तो खोटी है ही देर से दिए जाने वाला फैसला भी कोर्ट की नियत को शकोसुबहे से ऊपर नहीं रख पायेगा। कहा जा सकता है कि जस्टिस संजीव खन्ना और जस्टिस दीपांकर दत्ता इतिहास को दिशा देने की जिस दहलीज पर खड़े होकर भाजपा द्वारा लोकतंत्र और संविधान की छाती पर घोंपे गए 400 पार रूपी भाले को हटाकर न्यायपालिका की आस्था को स्थापित कर सकते थे उससे चूक गए। लगता तो यही है कि न्यायपालिका रिटायर्ड सीजेआई वर्तमान में भाजपा से राज्यसभा सदस्य रंजन गोगोई के रास्ते चल पड़ है !
अश्वनी बडगैया अधिवक्ता
स्वतंत्र पत्रकार
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