देशवासी न तो बुध्दिहीन है, न ही गुलाम, न ही बंधुआ मजदूर
कटनी। तमाम नकारात्मकता के बावजूद भाजपा को तीसरी पारी खेलने की जो अति आत्ममुग्धता है उसके पीछे खुद ही द्वारा गढ़ा गया नैरेटिव, एक विश्वसनीय विपक्ष की गैरमौजूदगी के साथ ही मतदाताओं को बुध्दिहीन और बंधुआ मजदूर मानकर चलना है। मोदी एंड कंपनी यह मानकर चल रही है कि विपक्ष के पास मोदी का कोई रिप्लेसमेंट नहीं है इसलिए मतदाता झक मारकर भाजपाई कैंडीडेट के पक्ष में मतदान करेगा। भाजपा के केन्द्र में आज भी जनसरोकारी मुद्दों को दरकिनार कर हिन्दुत्व बना हुआ है।
भाजपा ने किया अदालत से केस जीते बाल स्वरूप भगवान राम के साथ कपट-छल-छिद्र
राजनीतिक फायदा लेने के लिए भाजपा की नीति रही है हिन्दू आस्था के समर्थन में भावनात्मक उत्साह जगाकर हिन्दुत्व की राजनीति करना। भले ही राम मंदिर के निर्माण का रास्ता सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने तय किया है लेकिन राजनीतिक लाभ के लिए मंदिर निर्माण का श्रेय लेने से भाजपा ने जरा-सी भी देर नहीं की। उसने तो सुप्रीम कोर्ट से अदालती लड़ाई जीते बाल स्वरूप रामलला को भी नेपथ्य में भेजने से परहेज नहीं किया। बाल स्वरूप भगवान राम की प्राण प्रतिष्ठा करने की जगह नवीन मूर्ति बनवाकर उसकी प्राण प्रतिष्ठा कर दी वह भी अमहूर्त और आधे-अधूरे मंदिर निर्माण में। भगवान राम के कहे "मोहिं कपट छल छिद्र न भावा" के विपरीत आचरण।
उतरने लगी है हिन्दुत्व की खुमारी
भाजपा द्वारा तय किए गए हिन्दुत्व के नैरेटिव का शुरुआती असर तो ठीक-ठाक दिखा मगर समय बीतने के साथ ही अब वही हिन्दुत्ववादी जो भाजपा द्वारा गढ़े गये हिन्दुत्व के नैरेटिव पर नाच रहे थे खुमारी उतरने के बाद यह सोचने लगे हैं कि मोदी सरकार ने बेरोजगारी, मंहगाई, शिक्षा, स्वास्थ्य, बढ़ रही विषमता जैसे मुद्दों पर चर्चा करने से मौन क्यों साधा हुआ है। आस्था का उपयोग शासन प्रशासन के वैध मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए एक तय सीमा तक ही किया जा सकता है जिसकी सीमा लांघी जा चुकी है। इसी तरह धर्म के आधार पर मतदाताओं के धुव्रीकरण की रणनीति भी अब थकाऊ - ऊबाऊ लगने लगी है। हिन्दू - मुस्लिम, मंदिर - मस्जिद का राग भी अपनी चमक खो चुका है। देशवासियों का बड़ा तबका सामाजिक स्थिरता और साम्प्रदायिक सद्भाव का पक्षधर है। वह शांति के साथ अपना जीवन जीना चाहता है खासतौर पर हिन्दू - मुस्लिम त्यौहारों के दौरान। देशवासियों को इस बात का अह्सास हो गया है कि अल्पसंख्यकों की संख्या और उसके भौगोलिक विस्तार के मद्देनजर शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की नीति ही सभी के हित में है।
अपने गिरेबां में झाकने से परहेज क्यों
भृष्टाचार के खिलाफ भाजपा द्वारा अलापा गया जयघोष तेजी से अपना विश्वास खोने लगा है। जिन भृष्टाचारियों के खिलाफ भाजपा ने व्यापक अभियान चलाया उनमें से अधिकांश लोगों ने भाजपा की वाशिंग मशीन से अपने दाग साफ होने का सर्टिफिकेट ले लिया है। देशवासियों की समझ में आने लगा है कि मोदी सरकार का भृष्टाचारी अभियान अपने राजनीतिक हितों को साधने के लिए ही है। देशवासी यह भी समझ चुके हैं कि मोदी सरकार भाजपा के राजनीतिक हितों को पूरा करने के लिए ही ईडी, आईटी, सीबीआई जैसी ऐजेंसियों का दुरुपयोग कर रही है। यह कोई संयोग नहीं है कि इन ऐजेंसियों के निशाने पर विपक्षी पार्टियां और उनके नेता ही क्यों रहते हैं जबकि एसोसिएशन फार डेमोक्रेटिक रिफार्म्स के मुताबिक मोदी कैबिनेट में दो दर्जन से ज्यादा ऐसे मंत्री हैं जिन पर डकैती, अपहरण, बलात्कार, हत्या के प्रयास, हत्या सहित अन्य गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं। जिन पर कोई जांच कार्रवाई तक शुरू नहीं की गई है। भृष्टाचार के दलदल में नख से शिख तक डूबे नेताओं सहित अन्य लोग रोज मोदी वाशिंग मशीन से पाक-साफ हो रहे हैं। यह भाजपा और मोदी सरकार की भृष्टाचार के खिलाफ लड़ाई नहीं बल्कि टोटल प्रतिशोध (बदला) की राजनीति दिखाई दे रही है।
पार्टी हासिये पर
भाजपा का चुनाव प्रचार पूरी पार्टी को हासिये पर रखकर केवल एक व्यक्ति नरेन्द्र मोदी पर आकर ठहर गया है। जिसकी शुरुआत 2014 के आम चुनाव में तब हुई थी जब वरिष्ठ भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी को दबाव के चलते दरकिनार कर नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में चुनाव लड़ने का निर्णय लिया गया था । फिर क्या था। पार्टी के चुनाव प्रचार के लिए छापे जा चुके बैनर, पोस्टर को रद्दी की टोकरी में इसलिए डाल दिया गया कि उसमें उस वक्त के पार्टी की परम्परा मुताबिक राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ का फोटो छपा था। इसके बाद केवल नरेन्द्र मोदी की फोटो और मोदी सरकार का स्लोगन वाले बैनर पोस्टर छपवाये गये। दिल्ली की कुर्सी तक पहुंचने के चक्कर में पार्टी का नेतृत्व एक आदमी की महत्वकांक्षा के आगे इतना बौना हो गया कि उसने पार्टी विथ डिफरेंस के लेबल को ही उतार फेंका। जिसने 1996 में आई पिक्चर यशवंत में नाना पाटेकर द्वारा कहे गए उस डायलॉग को चरितार्थ कर दिया "साला एक मच्छर आदमी को हिजड़ा बना देता है"।
भाजपा में जिस काम को अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी जैसी शख्सियत ने नहीं किया उसे नरेन्द्र मोदी ने कर दिखाया - पार्टी को अपने पीछे करके। जबकि अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी का आभामंडल पार्टी से ऊपर था मगर उन्होंने हमेशा पार्टी को आगे रखकर खुद पीछे चले। हमेशा पार्टी अध्यक्ष का नाम और उसकी फोटो पार्टी के बैनर पोस्टर पर छपती रही। बाजपेई, आडवाणी, जोशी की शख्सियत के आगे नरेन्द्र मोदी पसंगे में नहीं है।
2014 से भाजपा के बैनर पोस्टर से राष्ट्रीय अध्यक्ष की फोटो ऐसे गायब की गई जैसे गदहे के सिर से सींग। अब भाजपा के नाम, भाजपा की गारंटी पर नहीं मोदी के नाम, मोदी की गारंटी के नाम पर वोट मांगे जा रहे हैं। मतलब भाजपा पार्टी न हुई नरेन्द्र मोदी की पैतृक संपत्ति हो गई और देवतुल्य कहे जाने वाले कार्यकर्ता मानसिक रूप से गुलाम बंधुआ मजदूर। लगता तो यही है कि इसी मुगालते में नरेन्द्र मोदी मतदाताओं को भी बुध्दिहीन और जर खरीद गुलाम मानकर चल रहे हैं जबकि देशवासियों का बड़ा तबका न तो बुध्दिहीन है, न ही गुलाम, न ही बंधुआ मजदूर। नरेन्द्र मोदी की यह सोच 2024 के आम चुनाव में भारी पड़ कर तीसरी पारी खेलने का खेल बिगाड़ सकती है। क्योंकि इतिहास गवाह है कि जब जनता अपने पर आ जाती है तो कमला, शबनम जैसे हिजड़ों (किन्नरों) को भी सिंहासन पर बैठा देती है।
जन आवाज के लिए कटनी से स्वतंत्र पत्रकार अश्विनी बडगैया अधिवक्ता की खास खबर।
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