चुनाव आयोग की खामोशी और सुप्रीम कोर्ट के फैसलों से 2024 का आम चुनाव बन गया है खासम-खास



स्वतंत्र भारत के इतिहास का पहला चुनाव

रोटी के पलटने में और सत्ता के पलटने में एक अंतर होता है। रोटी जल न जाय इसलिए पलटी जाती है और सत्ता इसलिए पलटी जाती है कि लोकतंत्र पर आंच न आये। 2024 का आम चुनाव अपने आप में अनोखा चुनाव होने जा रहा। क्योंकि इस चुनाव में चुनाव आयोग की भूमिका और उसकी खामोशी बतौर एक पार्टी के रूप में मुद्दा बनते तथा चुनाव प्रक्रिया शुरू होने के बीच में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए जा रहे फैसले सरकार की पूरी बिसात को पलटने की दिशा में कदम बढ़ाते दिखाई दे रहे हैं । जबकि आजादी के बाद से जितने भी लोकसभा चुनाव हुए हैं उनमें कभी ऐसा नहीं देखा गया है। 2024 के लोकसभा चुनाव में चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट एक बड़ा मुद्दा बनकर उभरते दिख रहे हैं तो क्या इसका कारण यह है कि राजनीतिक रूप से विपक्ष की कमजोरी, विपक्ष के तौर पर सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस का क्षत्रपों के आगे घुटने टेक कर समझौते करना, जांच ऐजेंसियों के सामने क्षत्रपों का डरना सहमना और सत्ता का लोकतंत्र के स्तंभों को अपनी हथेली पर नचाना।

चुनाव आयोग को जब भी याद किया जाता है तो चाहे - अनचाहे टी एन शेषन की तस्वीर सामने आ जाती है। चुनाव आयोग की संवैधानिक ताकत का अहसास देशवासियों को सही मायने में मुख्य चुनाव आयुक्त रहते टी एन शेषन ने ही कराया था। शेषन ने अपने कार्यकाल के दौरान चुनाव के वक्त हर पार्टी, हर पालिटीशियन के लिए एक बराबर लकीर खींची थी जिसे आज भी याद किया जाता है। इसी तरह सुप्रीम कोर्ट का नाम लेने पर सीजेआई रंजन गोगोई का चेहरा सामने आता है। लोग कल्पना भी नहीं कर पा रहे कि कोई सीजेआई रिटायर्मेंट के चंद महीने के भीतर सरकार द्वारा मनोनीत होकर राज्यसभा का सदस्य कैसे बन सकता है। इसीलिए तो सीजेआई रंजन गोगोई द्वारा दिए गए गये हर फैसले पर सवालिया निशान लगाये जाते हैं। लेकिन इस दौर में चुनाव आयोग की बागडोर न तो टी एन शेषन के हाथ में है न ही सुप्रीम कोर्ट के सीजेआई रंजन गोगोई हैं।

इस दौर में एक तरफ सुप्रीम कोर्ट में सीजेआई डीवाई चंद्रचूड हैं तो दूसरी तरफ़ चुनाव आयोग में चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति खुले तौर पर पीएम न सिर्फ कर रहे हैं बल्कि सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले को बदल दिया गया है जिसमें कहा गया था कि चुनाव आयुक्त की नियुक्ति न केवल निष्पक्ष होनी चाहिए बल्कि दिखनी भी चाहिए और इसके लिए जरूरी है कि चुनाव आयुक्त का चयन करने के लिए तीन सदस्यीय पैनल हो जिसमें बतौर सदस्य प्रधानमंत्री, विपक्ष का नेता और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश शामिल हों मगर सत्ता ने अपने अनुकूल परिस्थितियों का निर्माण करने के लिए संसद की ताकत दिखाते हुए एक झटके में पैनल से सुप्रीम कोर्ट ने मुख्य न्यायधिपति को हटाकर प्रधानमंत्री द्वारा मनोनीत कैबिनेट मंत्री को शामिल कर दिया गया। इस बार तो आम चुनाव की घोषणा के महज 30 घंटे पहले विपक्ष के नेता की असहमति दर्ज कराने के बावजूद दो चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति कर दी गई।

सवाल यह है कि आम चुनाव की घोषणा के बाद चुनाव आयोग की भूमिका निष्पक्ष और पारदर्शी दिखाई दे रही है क्या ? क्या चुनाव आयोग हर राजनीतिक दल को लेवल प्लेइंग फील्ड मुहैया करा रहा है ? इसी तरह चुनाव की तारीखों का ऐलान होने के बाद केन्द्र में बैठी मौजूदा सरकार के निर्णयों की समीक्षा सुप्रीम कोर्ट द्वारा करके फैसले दिए जा रहे हैं उससे मौजूदा सरकार सकते की हालत तक पहुंच गई है। कारण कि चुनाव कराने के तौर-तरीकों से लेकर चुनाव की बिसात बिछाने तक को पलटने की ताकत सुप्रीम कोर्ट के फैसलों में आकर टिक गई है।

यह सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि अगर भारत की राजनीति के पुराने पन्नों को पलटकर देखा जाए वह भी चुनाव के वक्त खासतौर पर चुनाव के ऐलान के बाद तो चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट दोनों की परिस्थितियों का आंकलन ऐसा कभी नहीं हुआ। 1975 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के खिलाफ फैसला दिया और इंदिरा ने चुनाव मैदान में जाने के बजाय देश में इमर्जेंसी लागू कर दी लेकिन इमर्जेंसी के बाद जब आम चुनाव हुए तब न्यायपालिका नहीं इमर्जेंसी मुद्दा थी और उसी आसरे सत्ता पलट गई। मनमोहन सिंह की सरकार के दौरान हुए 2 जी घोटाला और कोल स्कैम में बीजेपी ने सीएजी की रिपोर्ट के आधार पर सरकार पर निशाना साधा था। उस दौर में भी न तो चुनाव आयोग और न ही सुप्रीम कोर्ट कोई फैसला दे रहे थे न ही कांग्रेस पार्टी ने चुनाव आयोग की भूमिका को प्रभावित किया था।

आम चुनाव की तारीखों की घोषणा के बाद निर्मित हो रही परिस्थितियों पर नजर डालें तो 2024 का चुनाव अपने तरीके का बिल्कुल अलग चुनाव नजर आता है। यह चुनाव देश के लोकतंत्र और संविधान से आकर जुड़ गया है। इस दौर में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए तीन फैसलों ने सरकार के निर्णय, सरकार की राजनीतिक रणनीति और चुनाव आयोग की भूमिका को लेकर सवाल खड़े कर दिए हैं। और इन सवालों के अक्स तले पहली बार ऐसा लग रहा है कि चुनाव जीतने के लिए सत्ता देश की व्यवस्था पर हावी हो गई है।

सुप्रीम कोर्ट ने  मोदी सरकार द्वारा जारी किए गए इलेक्टोरल बांड्स को असंवैधानिक करार दिया उसके बाद भी एसबीआई ने वित्त मंत्रालय और पीएमओ की इजाजत से 8 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा के इलेक्टोरल बांड्स छाप कर बेचे जिसका बड़ा हिस्सा बीजेपी के खाते में गया। असंवैधानिक परचे को जारी करने के लिए असंवैधानिक परिस्थिति निर्मित कर तब तक जारी रखी गई जब तक कि उस पर खुले तौर पर रोक लगाये जाने का ऐलान नहीं कर दिया गया। इसी तरह सुप्रीम कोर्ट ने इवीएम को लेकर चुनाव आयोग को नोटिस जारी कर जवाब मांगा है कि वोटर को ये हक क्यों नहीं है कि वह जिसे वोट दे रहा है वह उस पर्ची को देखे और निकली हुई पर्ची को अपने हाथों पास रखे बाक्स में डाले। चुनाव आयोग ने अभी तक सुप्रीम कोर्ट में जवाब दाखिल नहीं किया है। अगर चुनाव आयोग अपना ढीला-ढाला रवैया जारी रखता है तो क्या वोटर के अधिकार व लोकतंत्र को बचाने के लिए सुप्रीम कोर्ट एकतरफा आदेश जारी करेगा ? चुनाव आयोग तो एक ही पहाड़ा पढ़ रहा है कि वक्त बहुत लगेगा तो क्या लोकतंत्र को हासिये पर ढकेल दिया जाय?

रणनीतिक तौर पर ईडी के द्वारा विपक्षियों की गिरफ्तारी का मामला भी सुप्रीम कोर्ट के सामने है। मोदी सरकार द्वारा ये कैसी परिस्थिति पैदा की जा रही है कि दिल्ली सरकार को जो अधिकार सुप्रीम कोर्ट ने दिए उन्हें संसद में विधेयक लाकर एलजी को दे दिया गया। शिवसेना मामले में सुप्रीम कोर्ट ने खुल कर कहा कि उस दौर में राज्यपाल की भूमिका असंवैधानिक थी। जो राज्यपाल जैसे संवैधानिक पद पर बैठकर राष्ट्रपति की नुमाइंदगी कर रहा है वह भी राजनीतिक सत्ता के लिए असंवैधानिक कार्य कर सकता है।

क्या यह मान लिया जाय कि निचली अदालतों और हाईकोर्ट में जो सुनवाई होती है उनमें सरकार के अनुकूल की परिस्थितियां हैं। क्योंकि जब सुप्रीम कोर्ट संविधान की किताब के पन्ने पलट कर व्याख्या करती है तो फैसले पलट जाते हैं। तो क्या ऐसा लगना समसामयिक नहीं होगा कि वर्तमान दौर में सुप्रीम कोर्ट एकमात्र आस और उम्मीद के तौर पर देश के राजनीतिक चुनाव के वक्त सबसे बड़ा मुद्दा हो गया है और उसका हर फैसला मौजूदा सरकार को डरा रहा है।

चुनाव आयोग की भूमिका भी सवालों के घेरे में है। राजनीतिक तौर पर लोकतंत्र का मतलब अगर चुनाव है तो चुनाव होने के दौरान निगाहें चुनाव आयोग पर ही होती है और चुनाव के दौरान चुनाव आयोग खामोशी ओढ़ ले तो उस चुनाव में चुनाव आयोग की खामोशी भी मुद्दा बनेगा क्योंकि चुनाव आयोग की खामोशी ही राजनीतिक तौर पर चुनाव को प्रभावित कर रही है।

सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिये जा रहे फैसलों से सरकार चिंतित है इसकी झलक उस समय दिखाई दी जब पीएम ने कहा कि अदालत को लेकर कांग्रेस के दौर में तानाशाही कैसे की जाती थी। इतना ही नहीं ट्यूटर पर ट्यूट कर दिया गया कि यह ठीक नहीं हो रहा है जिससे यह संदेश निकाला गया कि पीएम कहीं सुप्रीम कोर्ट को चेता तो नहीं रहे हैं ठीक वैसे ही जैसे एक वक्त पर तत्कालीन कानून मंत्री रिजजू ने रिटायर्ड जस्टिस को यह कहते हुए चेताया था कि आपको तो चुनाव लड़ना नहीं होता चुनाव तो हम लड़ते हैं तो आप हमारे नजरिए पर सवाल मत कीजिए।

राजनीतिक तौर पर इस तरह की स्थिति देश में कभी नहीं रही। यह पहला मौका है जब चुनाव आयोग की खामोशी ने उसे एक पार्टी के तौर पर खड़ा कर दिया है। राहुल गांधी ने अपना परचा दाखिल करने के उपरांत पत्रकारों से बातचीत करते हुए कहा कि एक तरफ कांग्रेस और इंडिया गठबंधन लोकतंत्र और संविधान बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं जबकि दूसरी तरफ वाले लोकतंत्र और संविधान खत्म करने में लगे हुए हैं। ऐसा ही कुछ रामलीला मैदान में हुई इंडिया गठबंधन की रैली में भी राहुल गांधी ने कहा था जिसे लेकर नुमाइंदे के तौर पर हरदीप पुरी ने चुनाव आयोग को शिकायत की है।

अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी को लेकर दिल्ली हाईकोर्ट में एडवोकेट सिंघवी और राजू  द्वारा दी गई  दलीलों के कुछ अंश  - - - - - 

सिंघवी - - _लेबल प्लेइंग को ध्यान में रखते हुए यह बहुत महत्वपूर्ण केस है। इसमें स्वतंत्र और निष्पक्ष लोकसभा चुनाव शामिल है जो लोकतंत्र का हिस्सा है। इससे हमारा मूल ढांचा बनता है और केजरीवाल की गिरफ्तारी से यह निश्चित हो गया है कि वो लोकतांत्रिक गतिविधियों में शामिल नहीं हो पायेंगे यानी चुनावी प्रक्रिया से पूरी तरह बाहर रखने की परिस्थिति है। इसका आधार यह है कि केजरीवाल को पहला सम्मन अक्टूबर 2023 को भेजा गया और गिरफ्तारी 21 मार्च 2024 को की गई। इससे दुर्भावना की बू आती है। इससे हमारे मूलभूत ढांचे को नुकसान पहुंच रहा है। मैं राजनीति की नहीं बल्कि कानून की बात कर रहा हूं और गिरफ्तारी की टाइमिंग भी ईशारा करती है कि दरअसल यह सब कुछ असंवैधानिक है।_ 

राजू - - _मान लीजिए कोई चुनाव से दो दिन पहले हत्या कर देता है तो क्या उसे गिरफ्तार नहीं किया जायेगा। क्या उसकी गिरफ्तारी मूल ढांचे को नुकसान पहुंचा देगी। आप हत्या करेंगे और उसके बाद कहेंगे कि मुझे गिरफ्तार नहीं किया जा सकता क्योंकि इससे मूल ढांचे को नुकसान होगा। अपराधी और आरोपी यह नहीं कह सकता कि हम गुनाह करेंगे और हमें इसलिए गिरफ्तार नहीं किया जायेगा। यह चुनाव का वक्त है। यह हास्यास्पद है। इससे तो अपराधियों को खुलेआम घूमने का लाइसेंस मिल जायेगा। हम अंधेरे में तीर नहीं चला रहे हैं हमारे पास व्हाटसएप के चैट, बयान, इनकम टैक्स का डेटा भी है।_

 

फिलहाल 5 घंटे की सुनवाई के बाद हाईकोर्ट ने फैसला सुरक्षित रख लिया है। फैसला यदि केजरीवाल के खिलाफ गया तो मामला सुप्रीम कोर्ट में जाना तय है।

अश्वनी बडगैया अधिवक्ता

स्वतंत्र पत्रकार

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