मानसिक तौर पर मरे सैनिकों से युद्ध नहीं जीते जाते

राजनीति विश्लेषण। दिनों चूहों के बिल बदलने का दौर चल रहा है। लोकोक्ति है कि जब जहाज डूबने का अंदेशा होता है तो सबसे पहले चूहे ही निकल - निकल कर भागने लगते हैं। ऐसा कुछ ही नजारा दिखाई दे रहा है भारत के राजनीतिक दलों में। ऐसा नहीं है कि चूहों का भागना केवल भारत की सबसे पुरानी कही जाने वाली पार्टी में ही हो रहा है। चूहे तो सत्ता पार्टी के भी भाग रहे हैं। हां यह अलग बात है कि बूढ़े दरख्त से भागने वाले चूहों की संख्या अधिक है। सालों साल से बूढ़े दरख्त की छाया तले बूढ़े दरख्त को ही कुतर - कुतर कर सब कुछ चट करते हुए भारी भरकम हो चुके वो बुढऊ चूहे भी यह कहते हुए भाग रहे हैं कि बूढ़े दरख्त में उनको मान - सम्मान नहीं मिल रहा है जबकि हकीकत यह है कि इन बुढऊ चूहों की दादागिरी के कारण आने वाली दो - तीन पीढ़ी के चूहे बिन ब्याहे विधवा - रडवे बनकर रिटायर हो चुके हैं। खबर तो यह भी आ रही है बूढ़े दरख्त के बचे खुचे उम्रदराज चूहे मैदान में आने से मनाकर बिलों में ही दुपके रहने का संदेशा आलाकमान कहे जाने वाली चूहों की बिरादरी के पास भिजवा रहे हैं।

वैसे दूसरे नजरिए से देखा जाए तो यह शुभ संकेत भी है चूहों की आलाकमान बिरादरी के लिए कि उम्रदराज हो चुके नाकारा निकम्मे नमकहराम चूहों से बिना मेहनत छुटकारा मिल रहा है। शुभ घड़ी तो युवा चूहों के लिए भी कही जा सकती है कि रास्ते के अवरोधक स्वमेव हट रहे हैं। आलाकमान बिरादरी को चाहिए कि वह उत्साहित युवा पीढ़ी को मैदान में उतारे। जीत मिली तो ठीक नहीं तो युवाओं को मैदानी अनुभव तो मिलेगा ही। उम्रदराज तो वैसे भी मानसिक रूप से मर कर मैदान में आने से मना कर रहे हैं। वैसे भी बड़े बुजुर्गों का कहना है कि मानसिक रूप से मरे हुए योद्धाओं से कभी भी युद्ध नहीं जीते जाते हैं।

अश्वनी बडगैया अधिवक्ता

स्वतंत्र पत्रकार

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