नैतिकता हुई लापता सभी का एक सूत्रीय ध्येय - सुर्खियों में बने रहना

कटनी। लोकतंत्र को लेकर एक बार फिर देश की सबसे बड़ी अदालत के सबसे बड़े न्यायाधीश की टिप्पणी अखबारों की सुर्खियां बनी हुई है। चंडीगढ़ में मेयर के चुनाव में प्रीसाइडिंग आफीसर अनिल मसीह के आचरण को लेकर सीजेआई ने कहा "यह लोकतंत्र का मजाक है। लोकतंत्र की हत्या हुई है। लोकतंत्र की हत्या होते हुए हम नहीं देख सकते। हम हैरान हैं"। मगर सीजेआई की यह टिप्पणी नागरिकों के मन में न्यायालय के प्रति विश्वास जागृत नहीं करती। कारण इस तरह की दंत विहीन - परिणामहीन टिप्पणियां सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशगण पहले भी कई बार कर चुके हैं।

निर्वाचन आयोग में आयुक्तों की नियुक्ति के संबंध में भी सीजेआई ने व्यवस्था दी थी कि आयुक्तों की नियुक्ति के पैनल में प्रधानमंत्री, विपक्षी दल का नेता और सीजेआई रहेंगे। हुआ क्या - प्रधानमंत्री ने संसद में प्रस्ताव पारित कराकर सीजेआई को बाहर का रास्ता दिखा दिया। सीबीआई को लेकर सुप्रीम कोर्ट की ही टिप्पणी थी कि सीबीआई सरकारी पिंजरे में कैद तोते की माफिक है। परिणाम क्या निकला ? अब तो सीबीआई के साथ ही ईडी और आईटी भी सरकारी पिंजरे में बंद तोते बन चुके हैं !  सर्वोच्च न्यायालय ने ही कहा था कि चुनाव आयोग ऐसा होना चाहिए जो लोकतांत्रिक व्यवस्था को सुदृढ़ बनाये रखने के लिए प्रधानमंत्री पर भी कार्रवाई कर सके।

सत्ता पाने के लिए राजनीतिक दलों द्वारा अलोकतांत्रिक कारनामा कोई पहली बार नहीं किया गया है। दिल्ली की गद्दी में जो भी बैठा है उसने अपने सिंहासन को बनाए रखने तथा सूबों में अपने दल की सरकार बनाने - बचाने के लिए सारी लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं का आम दरबार में न केवल चीरहरण किया बल्कि नग्न लोकतंत्र को अपनी जंघा में बैठाकर नंगा नाच भी किया। चाहे वह कांग्रेस की तरफ से प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी का समय रहा हो या फिर मौजूदा भाजपाई प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का 10 वर्षीय कार्यकाल हो।

जहां प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने अपनी कुर्सी बचाने के लिए देश को आपातकाल की अंधेरी खोह में धोंसा वहीं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सत्ता बचाने और बनाने के लिए सांसदों - विधायकों की तथाकथित हार्स ट्रेडिंग को बढ़ावा दिया। चाहे वह मध्यप्रदेश रहा हो चाहे महाराष्ट्र या फिर बिहार हो या झारखंड। लोकतांत्रिक मूल्यों की क्षत - विक्षत लाश का जुलूस तो चंडीगढ़ के मेयर चुनाव में भाजपा की ओर से बनाये गए प्रीसाइडिंग आफीसर अनिल मसीह ने अल्पमत वाले (16 सदस्य) भाजपा का मेयर बनाने के लिए बहुमत वाले (20 सदस्य) आम आदमी पार्टी और कांग्रेस गठबंधन के 8 मतों पर हाथ की सफाई दिखाते हुए (मत अवैध कर) निकाल दिया वह भी खुलेआम वीडियो कैमरों के सामने। उससे भी ज्यादा शर्मनाक पहलू तो उच्च न्यायालय की भूमिका वाला रहा ।

अक्सर देखने में आता है कि देश की सबसे बड़ी अदालत न केवल अपनी सुविधानुसार मामलों की सुनवाई करती है बल्कि सत्तापक्ष के ईशारे पर भी करती दिखाई देती है। अब तो यह कहा जाने लगा है कि न्याय प्रणाली न्याय देने में विफल हो रही है। आर्टिकल 32 हर नागरिक को अधिकार देता है कि वह न्याय पाने के लिए सीधे उच्चतम न्यायालय के द्वार पर दस्तखत दे सकता है। इसी तरह खुद सर्वोच्च न्यायालय का कहना है कि बेल (जमानत) अधिकार है जेल भेजना अपवाद (BAIL IS RIGHT JAIL IS EXCEPTION) मगर सर्वोच्च न्यायालय ठीक इसके उलट काम करती है। सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण कहते हैं कि विगत 6-7 वर्षों से सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीशों की निष्ठा संदेह के घेरे में रही है। जिसकी जानकारी भी देश को तब लगी जब न्यायालय परिसर में पहली आयोजित की गई प्रेस कांफ्रेंस में चार न्यामूर्तियों ने दी। वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण के मुताबिक सरकार से संबंधित सारे सेंसिटिव जजमेंट सरकार के पक्ष में दिए जा रहे हैं।

एक कामगार को 20 साल से ज्यादा समय कोर्ट की पेशियां करते निकल जाता है फिर भी न्याय नहीं मिलता है। देश की जेलों में तकरीबन 5 लाख से अधिक विचाराधीन कैदी बंद हैं। गरीब अल्पसंख्यक लोगों को जमानत नहीं दी जा रही है। बुध्दिजीवियों की आवाज को दबाया जा रहा है। सत्ता से जुड़े हुए आरोपी बाहर नंगा नाच नाच रहे हैं। सत्ताधारियों की जुल्मियत के खिलाफ आवाज उठाने वालों को सलाखों के पीछे भेजा जा रहा है। चाहे वह किसान आंदोलन के वक्त भाजपा सांसद/मंत्री के बेटे द्वारा वाहन से कुचल कर मौत के घाट उतार दिये जाने की बात हो या पहलवान बच्चियों के साथ किये गये यौनाचार का मामला हो या फिर पत्रकारों द्वारा सत्ताधारियों के खिलाफ की गई रिपोर्टिंग हो। कहा जाता है कि इसके पीछे जजों की बड़ी संख्या का प्रो-प्राॅसिक्यूसन होना भी है क्योंकि कि वे पहले सरकारी वकील रह चुके होते हैं। वे सरकार की ही मानते हैं। उनकी नजर में सत्तापक्ष से दूर रहने वाला हर व्यक्ति दोषी है। पुलिस जिसको पकड़ कर ले आती है उसी को दोषी मान लेते हैं।

प्रिजनर्स स्टैटिक्टिक्स इंडिया 2022 के आंकड़ों के अनुसार भारतीय जेलों में 5 लाख 73 हजार 2 सौ 20 बीस कैदी हैं। जिनमें विचाराधीन कैदियों की संख्या का अनुपात 4:3 है। इनमें से एसटी, एससी व ओबीसी वर्ग के कैदियों का अनुपात 3:2 है। विचाराधीन कैदियों में 21% दलित, 9% एसटी, 35% ओबीसी, 19.3% मुस्लिमों की हिस्सेदारी है। राष्ट्र निर्माताओं ने नागरिक अधिकारों, न्याय एवं संविधान की रक्षा के लिए ही सुप्रीम कोर्ट को स्वतंत्र रखा था मगर आज यह सरकार के आगे नतमस्तक दिख रही है ऐसे में अब न्याय की उम्मीद और गुहार किससे .......!

इस लेख के अंत में उस व्यक्ति का जिक्र न करना अन्याय होगा जिसने लोकतांत्रिक मूल्यों को जिंदा रखने की खातिर एक वोट के कम होने पर अपनी सरकार कुर्बान कर दी थी जबकि उसकी शख्सियत ऐसी थी कि उसके एक ईशारे पर दसियों वोट उसको बिना शर्त समर्थन दे सकते थे। यह अलग बात है कि अब उसके उत्तराधिकारी सरकार बनाने के लिए बेशर्मी की सारी हदें पार करते हुए लोकतंत्र का बलात्कार करने में लगे हुए हैं।

तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 1996 में कहा था कि_ आज हमें अकारण कटघरे में खड़ा किया जा रहा है क्योंकि हम थोड़ी ज्यादा सीटें नहीं ले सके। हम मानते हैं हमारी कमजोरी है। हमें बहुमत मिलना चाहिए था। राष्ट्रपति ने हमें अवसर दिया। हमने उसका लाभ उठाने की कोशिश की है। हमें सफलता नहीं मिली वो अलग बात है, लेकिन हम फिर भी सदन में सबसे बड़े विरोधी दल के रूप में बैठेंगे और आपको हमारा सहयोग लेकर सदन चलाना पड़ेगा। सत्ता का खेल तो रहेगा, सरकारें आयेंगी-जायेंगी, पार्टियां बनेंगी - बिगड़ेंगीं मगर यह देश रहना चाहिए, इस देश का लोकतंत्र रहना चाहिए। 

अश्वनी बडगैया अधिवक्ता

स्वतंत्र पत्रकार

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