चंडीगढ़ मेयर चुनाव पर शीर्ष अदालत का फैसला राजनीतिक दलों को शर्मसार करने वाला है
चंडीगढ़ मेयर चुनाव पर शीर्ष अदालत का फैसला राजनीतिक दलों को शर्मसार करने वाला है
क्या मगरूर सत्ताधारी और टुकड़ों में बंटे बाकी दलों की धूर्तता पर कोई असर पड़ेगा ?
अब यह साबित हो चुका है कि चंडीगढ़ में मेयर के चुनाव में प्रीसाइडिंग आफीसर अनिल मसीह ने भाजपा के कैंडीडेट मनोज सोनकर को निर्वाचित कराने के लिए लोकतांत्रिक व्यवस्था के अधोवस्त्र का नाड़ा खोला। जब मामला देश की सबसे बड़ी अदालत के सामने आया तो प्रथम दृष्टतया ही सीजेआई डीवाई चंद्रचूड को कहना पड़ा कि यह तो लोकतंत्र का मजाक है, लोकतंत्र की हत्या हुई है, लोकतंत्र की हत्या होते हुए हम नहीं देख सकते, हम हैरान हैं।
मगर सीजेआई की इस गंभीर और कठोर टिप्पणी के बाद भी न तो चंडीगढ़ न ही दिल्ली दरबार की पेशानी पर कोई बल पड़े। शायद दिल्ली वजीर-ए-आजम इस मुगालते में थे कि जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट के पिछले कुछ सीजेआई उनके ईशारे पर ता-ता-थईया कर रहे थे तो वर्तमान सीजेआई भी वही करेंगे। मगर वजीर-ए-आजम का भरम उस दिन टूट गया जिस दिन सीजेआई की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने मोदी सरकार द्वारा जारी की गई इलेक्टोरल बांड्स स्कीम को असंवैधानिक करार देते हुए रद्द कर दिया था साथ ही स्टेट बैंक ऑफ इंडिया से पिछले पांच सालों में बेचे गये इलेक्टोरल बांड का हिसाब किताब चुनाव आयोग के साथ साझा करने को कह दिया। चुनाव आयोग के भी कान खींचते हुए कह दिया गया कि वह इलेक्टोरल बांड्स के संबंध में स्टेट बैंक से मिली जानकारी को अपनी बेबसाइट में डाल कर जनता के बीच सार्वजनिक करे।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से उम्मीद की जा रही थी कि वजीर-ए-आजम और उनके दरबारियों में नैतिकता जगेगी मगर हुआ उसका उल्टा ही। देखने में यही आया कि दुष्शासन की मदद से लोकतंत्र को वस्त्रहीन कर अपनी जंघा में बैठाये दुर्योधन ने एक ईशारे पर तथाकथित निर्वाचित मेयर मनोज सोनकर से इस्तीफा दिलवाया तो दूसरे इशारे पर आम आदमी पार्टी के तीन पार्षदों (दोपायों) की हार्स ट्रेडिंग करते हुए भाजपा के कुनबे में प्रवेश कराया। मतलब पलड़ा बराबरी पर लाया गया। चंडीगढ़ की 34 सदस्यीय नगर निगम में भाजपा के 14, आम आदमी पार्टी के 13 और कांग्रेस के 7 पार्षद हैं। आम आदमी पार्टी और कांग्रेस गठबंधन के पार्षद होते हैं 20। भाजपा के पार्षदों की संख्या है 14। भाजपा की कालनेमी सोच के मुताबिक (धूर्तता की पराकाष्ठा) यदि सुप्रीम कोर्ट मेयर के चुनाव को रद्द भी कर देगा तो फिर से मेयर का चुनाव होगा और जब दोनों का पलड़ा बराबर होगा तो छल कपट का प्रयोग कर फिर से भाजपा का मेयर तो चुन ही लिया जायेगा।
मगर लोकसभा से लेकर पंचायत तक की कुर्सी के लिए लोकतांत्रिक मर्यादाओं को तार - तार करने वाली पार्टी यह भूल गई कि "विनाश काले बुध्दि विपरीत" भी होती है। और यही गल्ती वे कर भी बैठे। शीर्ष अदालत ने इस मंशा को भांप भी लिया। उसने प्रीसाइडिंग आफीसर द्वारा लीपापोती कर रद्द किए गए वोटों की न केवल जांच की बल्कि प्रीसाइडिंग आफीसर से सवाल - जबाव भी किया। बिना थर्ड डिग्री इस्तेमाल हुए अनिल मसीह टूट गया और उसने कबूल कर लिया कि उसने जानबूझकर आप आदमी पार्टी और कांग्रेस के उम्मीदवार कुलदीप कुमार के पक्ष में पड़े 20 वोटों में से 8 वोटों में हेराफेरी करते हुए रद्द कर दिया था और भाजपा के उम्मीदवार को जीता घोषित किया था । शीर्ष कोर्ट से दुबारा चुनाव कराने की गुजारिश अनावेदक पक्ष (भाजपा) द्वारा की गई। चूंकि भाजपा की जल्दबाजी में की गई हार्स ट्रेडिंग शीर्ष कोर्ट की नजर में आ गई थी इसलिए उसने दुबारा चुनाव कराने की मांग ठुकराते हुए आप - कांग्रेस कैंडीडेट के पक्ष में पड़े सारे वोटों को वैध मानते हुए कुलदीप कुमार को विजेता घोषित कर दिया।
इस चुनाव संबंधी फैसले में शीर्ष अदालत ने चौथी बार संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत मिली विशेषाधिकार की शक्ति का इस्तेमाल किया है । इस अनुच्छेद के तहत दिए गए फैसले को चुनौती नहीं दी जा सकती है। कहा जा सकता है कि इस तरह शीर्ष कोर्ट ने वजीर-ए-आजम और उनके सिपहसलारों की कुत्सित मानसिकता पर दुहरा प्रहार कर दिया है । इसके पहले सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत मिले विशेषाधिकार का इस्तेमाल राम जन्मभूमि मामले में इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले को रद्द करते हुए 2.77 एकड़ जमीन हिन्दुओं को सौंपने में, यूनियन कार्बाइड मामले में गैस पीड़ितों को राहत पहुंचाने के लिए मुआवजा देने में तथा जेल में 30 साल से बंद राजीव गांधी के हत्यारे एजी पेरारिवलन को रिहा करने में किया था।
चंडीगढ़ की मेयर चुनाव वाली घटना ने इस चर्चा पर अपनी मुहर लगा दी है कि भारत में पिछले कुछ सालों से लोकतंत्र के साथ सार्वजनिक रूप से बलात्कार किया जा रहा है। एकबार फिर इस बात को हवा दे दी गई है कि सत्ता की हवस बुझाने के लिए राजनीतिक अनैतिकता जनता के फैसलों को खरीद रही है। देश की राजधानी से लेकर गांव तक के चुनाव में सरेआम चुनाव प्रणाली को शर्मसार करना इस बात का संकेत है कि सत्ता की मदहोशी में लोकतंत्र का गला घोंट दिया गया है।
सवालिया निशान तो गुलामों की तरह चरण वंदना करते हुए दिख रहे चुनाव आयोग पर भी है जिसके सामने सब कुछ स्पष्ट था फिर भी उसकी तरफ से ना तो कोई बयान आया ना ही इस प्रक्रिया को रोकने के लिए कोई प्रयास किया गया। मतलब साफ है कि चुनाव आयोग सरकार के इशारे पर कैबरे डांस कर रहा है। चुनाव दर चुनाव इलेक्शन कमीशन की निष्पक्षता और विश्वसनीयता पर आ रही गिरावट को चंडीगढ़ की घटना ने चार कदम आगे बढ़ा दिया है।
देश आम चुनाव की दहलीज पर खड़ा है। बुध्दिजीवियों के एक तबके के साथ आम आदमी भी चुनावी वोटिंग मशीन की पारदर्शिता पर अविश्वास जता रहा है। लगातार बैलेट पेपर से चुनाव कराने की मांग की जा रही है। चुनाव आयोग जनता की आशंकाओं का समाधान करने के बजाय सरकारी कठपुतली बना हुआ है। सुप्रीम कोर्ट के पास भी मामला विचाराधीन है। वर्तमान में देखने में आ रहा है कि कोई भी संवैधानिक संस्था स्वतंत्र होकर निर्णय लेने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही है। देश के मीडिया घराने सत्ताधारी की गोद में बैठकर अंगूठा चूसते दिख रहे हैं। यही वजह है कि देशवासियों की अंतिम आस वर्तमान सीजेआई डीवाई चंद्रचूड पर टिकी हुई है। इसलिए अब सारा दारोमदार सीजेआई पर है। लोकतंत्र की मर्यादाओं को बचाने के लिए उन्हें ही मोर्चा सम्हालने आगे आना होगा वरना दिल्ली दरबार के दरबारी तो आये दिन द्रोपदी (लोकतंत्र) को निर्वस्त्र कर जंघा में बैठाने के लिए चौसर खेल ही रहे हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने अनिल मसीह को कोर्ट में झूठ बोलने पर नोटिस जारी करते हुए सीआरपीसी की धारा 340 के तहत मुकदमा चलाने को कहा है। परन्तु देखा जाय तो अनिल मसीह एक प्यादे से ज्यादा कुछ नहीं है। जिसे सूली पर लटका दिया जायेगा। मगर उन मगरमच्छों के चेहरों से नकाब कौन उठायेगा जिन्होंने लोकतंत्र के अपहरण की योजना बनाई - सारा तानाबाना बुना । यह काम भी तो सुप्रीम कोर्ट को ही लगे हाथ कर देना चाहिए था। वरना अफलातून का यह कहना सही है कि कानून के जाल में छोटी मछलियां ही फंसती हैं मगरमच्छ तो जाल फाड़ कर बाहर निकल आते हैं।
अश्वनी बडगैया अधिवक्ता
स्वतंत्र पत्रकार
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