पेटीएम पर नकेल - क्या है असल वजह

जिस पेटीएम का प्रचार खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने किया हो, जिस देश में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बिना कोई भी संवैधानिक संस्था प्रमुख पत्ता तक न हिला सकता हो उस देश की संवैधानिक संस्था आरबीआई का मुखिया, जो खुद अर्थशास्त्री न होते हुए भी मोदी की कृपा से कुर्सी पर बैठा हो, कैसे अपनी मर्जी से पेटीएम की गतिविधियों पर प्रतिबंध लगाने का आदेश जारी कर सकता है ? मतलब साफ है कि पेटीएम पर प्रतिबंधात्मक आदेश जारी करने के लिए मोदी की हरी झंडी है। पेटीएम की गतिविधियों पर लगाई गई रोक के पीछे क्या कारण है इसको लेकर राष्ट्रीय मीडिया में तो परम्परागत मुर्दानगी छाई हुई है, हां सोशल मीडिया पर जरूर तरह-तरह की खबरें चल रही है मसलन आखिर क्यों डूबा पेटीएम - पेटीएम को लगी पनौती,,, आदि आदि।

पेटीएम असल में न्यू इंडिया की कहानी है। पेटीएम (पे थ्रू मोबाईल) फिनटेक क्रांति की अग्रदूत मानी जाती है। भारत में अपने ग्राहकों को मोबाईल से पेमेंट तथा दूकानदारों को क्यूआर कोड के जरिए पेमेंट लेने की सुविधा देने के मामले में कम्पनी पहले पायदान पर खड़ी है। कम्पनी अपने पास 30 करोड़ से अधिक वाॅलेट, 3 करोड़ से अधिक बैंक खाते, 10 करोड़ से अधिक केवाईसी ग्राहक के साथ ही 80 लाख फास्टटैग होने का दावा करती है।

आरबीआई के मुताबिक कम्पनी के पेमेंट गेटवे में कोई खामी नहीं है बल्कि गड़बड़ियां तो बैंकिंग नीति में है। इस कारण से बैंकिंग रेगुलेशन एक्ट के नियम 35 ए के तहत कार्रवाई की गई है। जिससे कम्पनी 29 फरवरी 2024 के बाद पेमेंटस बैंक में किसी प्रकार का क्रेडिट डिपॉजिट, लेनदेन सहित फास्टटैग एवं ट्रांजेक्शन का इस्तेमाल नहीं कर पाएगी।

पत्रकारिता को इतना अधिक पंगु बना दिया गया है कि राष्ट्रीय मीडिया पेटीएम पर आरबीआई द्वारा लगाई गई पाबंदी की असल वजह बताने से कतरा रही है। वित्तीय विश्लेषकों का मानना है कि असल बीमारी की जड़ सिर्फ पेटीएम बैंक ही नहीं बल्कि पर्सनल लोन से जुड़ा समूचा अर्थतंत्र है। कुछ कदम पीछे मुड़कर देखें तो दिखाई देता है कि 19 अक्टूबर 2023 को राॅयटर्स की खबर के मुताबिक आरबीआई ने देश में कम आय वाले उपभोक्ताओं द्वारा बैंकों एवं एनबीएफसी से लिए जाने वाले पर्सनल लोन में आई तेजी को कड़ाई से नियंत्रित करने के लिए कदम उठाने के निर्देश जारी किए थे। जानकर सूत्रों के अनुसार इसमें चिंता व्यक्त की गई है कि बड़ी संख्या में कम आय वर्ग के लोगों द्वारा अपनी लाइफस्टाइल को बेहतर दिखाने के लिए 10000 से लेकर 50000 रुपये के लोन  पेटीएम सहित विभिन्न एनबीएफसी बैंकों से बेहद आसानी से हासिल किए जा रहे हैं। लोन देने वाली वित्तीय संस्थाओं की बेबसाइट पर 2 मिनट में आसानी से बिना केवाईसी के लोन देने की सुविधा का जिक्र रहता है। देश की वित्तीय मीडिया ने तो एक समय पेटीएम बैंक के 2 मिनट में लोन की सुविधा की तुलना इंस्टैंट मैगी से भी की थी । आरबीआई को काॅरपोरेट समूहों से ज्यादा लाखों छोटे - छोटे लोन से एनपीए का खतरा दिख रहा है।

आंकड़े बताते हैं कि 10000 रुपये या इससे कम रुपये के लोन लेने वालों की संख्या जहां 2019 -20 में 2.35 करोड़ थी वहीं वह 2022 - 23 में 6.56 करोड़ तक पहुंच गई। इसी तरह से 10000 से 50000 रुपये के लोन 2019 - 20 में 55 लाख थे वे 2022 - 23 में 2.04 करोड़ तक पहुंच गये हैं। यही तो चिंताजनक पहलू है कि उधार पर अपनी लाइफस्टाइल में आमूलचूल परिवर्तन को आतुर भारतीय युवाओं की संख्या में रिकॉर्ड बढोत्तरी हुई है। ये लोग किसी एक लोन पर निर्भर नहीं हैं। पेटीएम सहित तमाम निजी बैंकों एवं एनबीएफसी बैंकों द्वारा फोन करके करोड़ों लोगों को आसान शर्तों पर कर्ज लेकर शानदार लाइफस्टाइल का लुत्फ उठाने के लिए ललचाया जा रहा है। प्रोसेसिंग फीस और ब्याज ही पेटीएम सहित तमाम बैंकिंग संस्थाओं के लिए खुद को बाजार में टिकाए रखने का सबसे बड़ा स्रोत है।

आम भारतीय को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनना होगा 

वित्तीय पुरोहितों के मुताबिक हकीकत तो यही नजर आती है कि बहुसंख्यक आबादी की आमदनी बढ़ने के बजाय कम हुई है। सरकार द्वारा उपभोक्ता वस्तुओं की खपत में वृद्धि की तमाम कोशिशें नाकाम साबित हुई हैं। ऐसे में शुरू - शुरू में पेटीएम सहित अन्य बैंकिंग संस्थाओं की ओर से लोगों को आसान शर्तों पर तत्काल पर्सनल लोन की सुविधा देने से सरकार खुश थी क्योंकि खपत में वृद्धि का मतलब जीडीपी को रफ्तार मिलना है। लेकिन इसका कुल फलसफा यह है कि देश में घरेलू बचत आज 51 सालों के रिकॉर्ड निचले स्तर पर पहुंच चुकी है। 2002 में घरेलू बचत जहां जीडीपी के 12 फीसदी के आसपास थी 2022 - 23 में वह रिकॉर्ड स्तर पर गिरते हुए 5.1 फीसदी तक पहुंच गई है। सूत्रों की मानें तो हालात यह है कि भारत सरकार तक के लिए देश के भीतर अपने खर्चों की पूर्ति के लिए लोन हासिल कर पाना मुश्किल हो रहा है और अब उसे ग्लोबल बांड्स जारी कर पूरा करने की तैयारी करनी पड़ रही है।

ऐसे में देश की बेपटरी हो रही वित्तीय रेल को पटरी पर लाने की जिम्मेदारी केन्द्रीय बैंक पर आन पड़ी है। शायद आरबीआई को पहली बार इस बात का अहसास हुआ है कि सरकारें तो आती - जाती रहेंगी लेकिन यदि एक बार देश की जनता एवं वैश्विक बिरादरी का भारत की वित्तीय नियामक संस्था आरबीआई से भरोसा उठ गया तो रूपये और देश की आर्थिक स्थिति को पटरी पर लाना लगभग असंभव हो जाएगा। ऐसे में आरबीआई के सामने पेटीएम पर नकेल कसने के सिवाय कोई चारा नहीं बचा था।

भारत को जिस आर्थिक राह पर धकेल दिया गया है उसमें फाइनेंस कैपिटल, फिनटेक स्टार्टअप, जीडीपी के सतही आंकड़े और शेयर बाजार के सहारे ही मोदी सरकार अपनी कामयाबी के नैरेटिव को दिखा सकती है। देश को झूठे विकास और झूठी लाइफस्टाइल की दौड़ में ले जाने की असल दोषी तो देश की सरकार और मुनाफाखोर थैलीशाह हैं जिन्होंने 90 के दशक से ही इसके बीज रोप दिये थे। जिसने भारतीय मध्यम वर्ग से विस्तारित होते हुए निम्न मध्यम वर्ग की व्यापक आबादी को अपने आगोश में ले लिया है।

यक्ष प्रश्न यही है कि आरबीआई द्वारा पेटीएम की चूलें कस कर तात्कालिक सख्ती तो दिखाई जा सकती है लेकिन जिस नव - उदारवादी अर्थनीति पर देश को धकेला जा चुका है यदि उसमें आमूलचूल बदलाव नहीं किया गया तो देर-सबेर देश को अर्जेन्टीना, श्रीलंका बनने से कैसे रोका जा सकेगा ?

अश्वनी बडगैया अधिवक्ता

स्वतंत्र पत्रकार

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