खुद को शस्त्र सुसज्जित व विपक्ष को शस्त्र विहीन करना ही एकमात्र लक्ष्य दिख रहा है मोदी भाजपा का !

इलेक्टोरल बान्डस से कम्प्रोमाइज्ड हो रही थी डेमोक्रेसी - फैसला उलट होता तो क्या होता ?

तत्कालीन वित्त मंत्री मरहूम अरुण जेटली ने 2017 में इलेक्टोरल बान्डस (चुनावी चंदा) की योजना को पेश करते समय दावा किया गया था कि इससे राजनीतिक दलों को मिलने वाली फंडिंग और चुनाव व्यवस्था में पारदर्शिता आयेगी और कालेधन पर रोक लगेगी मगर हुआ उसका उल्टा ही । मोदी सरकार ने खुद ही ऐसी नीतियां बनाकर पारदर्शिता पर न केवल अमावस का पहरा बैठाया बल्कि कालेधन को बढ़ावा देने की राह खोल दी।

2 जनवरी 2018 को अधिसूचित किये गये इलेक्टोरल बान्डस पर चुनाव आयोग और भारतीय रिजर्व बैंक ने भी अपनी आपत्ति दर्ज कराते हुए कहा था कि इससे न तो कालेधन पर रोक लग सकेगी न ही विदेशी चंदे पर रोक लगाई जा सकेगी मगर मगरूर सरकार द्वारा दोनों संवैधानिक संस्थाओं की आवाज नक्कारखाने में दफन कर दी गई । यहां तक कि अपनी जिद पर अड़ी मोदी सरकार ने कम्पनी कानून के साथ ही आरबीआई, आयकर तथा जनप्रतिनिधित्व अधिनियम में संशोधन किया था।

तभी इलेक्टोरल बान्डस योजना के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गई थी जिस पर 31 अक्टूबर 2023 तक नियमित सुनवाई के बाद 2 नवम्बर 2023 को सुरक्षित किये गये फैसले का खुलासा सुप्रीम कोर्ट ने 15 फरवरी 2024 को कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संविधान पीठ, जिसमें सीजेआई डीवाई चंद्रचूड सहित जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस बी आर गवई, जस्टिस जेवी पारदीवाला, जस्टिस मनोज मिश्रा शामिल थे, ने सर्वसम्मति से फैसला देते हुए राजनीतिक दलों को गुमनाम चुनावी चंदा देने वाली मोदी सरकार की इलेक्टोरल बान्ड योजना को असंवैधानिक करार करते हुए रद्द कर दिया है। संविधान पीठ ने अपने आदेश में इलेक्टोरल बान्डस की बिक्री पर तत्काल रोक लगाते हुए इसे खरीदने वालों, इसे पाने वालों के नाम तथा बान्ड की वैल्यू सार्वजनिक करने को कहा है।

सुप्रीम कोर्ट ने मोदी सरकार द्वारा लाई गई इलेक्टोरल बान्डस योजना को संविधान के अनुच्छेद 19 (1ए) के तहत "अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सूचना के अधिकार के संवैधानिक अधिकार" का उल्लंघन माना है। सीजेआई डीवाई चंद्रचूड के मुताबिक कालेधन पर अंकुश लगाने के लिए सूचना के अधिकार का उल्लंघन उचित नहीं है। राजनीतिक दलों को मिलने वाले पैसों के बारे में मतदाता को जानकारी होना जरूरी है ताकि वह वोट देने की स्वतंत्रता का इस्तेमाल कर सके।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए पूर्व चुनाव आयुक्त वाई एस कुरैशी ने कहा कि इससे लोकतंत्र में लोगों का विश्वास बहाल होगा (मतलब लोकतंत्र पर लोगों को अविश्वास होने लगा था)। यह पिछले पांच - सात सालों में सुप्रीम कोर्ट से मिला ऐतिहासिक फैसला है। यह लोकतंत्र के लिए वरदान है। अधिकांश लोगों का यह भी कहना है कि इस फैसले के बाद नोटों पर वोट की ताकत मजबूत होगी।

ऐतिहासिक कहे जाने वाले सुप्रीम कोर्ट के फैसले को सुरक्षित रखने तथा फैसला सार्वजनिक करने के बीच के अंतराल और इस फैसले से सीधे तौर पर प्रभावित होने वाले राजनीतिक दलों के लिए कोई निर्देश या स्टेटमेंट नहीं होने से सुप्रीम कोर्ट पर भी सवालिया निशान लग गया है।


सुप्रीम कोर्ट द्वारा मोदी सरकार की इलेक्टोरल बान्ड योजना को असंवैधानिक घोषित किए जाने पर कानूनी - राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि जब देश की सबसे बड़ी अदालत के न्यायमूर्तियों को फैसला सुरक्षित करते समय ही यह मालूम था कि इलेक्टोरल बान्डस योजना असंवैधानिक है तब ही तत्काल फैसला क्यों नहीं सुनाया गया ? जबकि इस बीच पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए और इस इलेक्टोरल बान्ड की बिक्री भी की गई। यह तो ऐसा ही हुआ जैसे "बिल्ली ने चूहों को सुरक्षित निकल जाने के लिए (ग्रीन कॉरिडोर) आंखें मूंद ली हो"।

राजनीतिक विश्लेषकों का यह भी मानना है कि जब 2018 से लागू की गई इलेक्टोरल बान्डस योजना ही असंवैधानिक घोषित कर दी गई है तो फिर उस अवैध चुनावी चंदे से लड़े गये चुनाव उसमें मिली जीत और जीत के फलस्वरूप बनाई गई सरकार भी असंवैधानिक और अवैध है। इसलिए उस दौरान चुनी गई केंद्र की मोदी सरकार और राज्यों की सरकारें चाहे वह किसी भी दल की हों उन्हें बर्खास्त कर दिया जाना चाहिए क्योंकि कि प्रधानमंत्री मोदी हों या कोई मुख्यमंत्री नैतिकता के आधार पर तो इस्तीफा देने से रहा । वैसे भी क्या यह तब संभव हो सकता है जब राजनैतिक दल नैतिकता को दफन कर चुके हों और महामहिम नैतिक रूप से अपंग - लाचार दिख रहे हों।

सुब्रमण्यम स्वामी ने तो अपने ट्विटर पर कुछ इस तरह की प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए लिखा है कि इलेक्टोरल बान्ड स्कीम मोदी का क्रेज़ी आइडिया था जो लागू होकर स्कैम में बदल गया। यह बीजेपी के सिद्धांतों के साथ धोखा है। मोदी को तत्काल इस्तीफा दे देना चाहिए। कहा जा सकता है कि लोकतंत्र के इतिहास में दोपायों की सबसे ज्यादा खरीद फरोख्त कर सरकार गिराने - बनाने का खेला इलेक्टोरल बान्डस आने के बाद ही खेला गया है। खुलेआम लोकतंत्र का माखौल उड़ाया गया है।

देखा जाए तो सुप्रीम कोर्ट के द्वारा इलेक्टोरल बान्डस को असंवैधानिक करार दे दिये जाने से राजनीतिक दलों को नुकसान तब तक नहीं हो सकता जब तक इन बान्डस से मिली राशि को राजसात न कर लिया जाय। कह सकते हैं कि गुमनाम चुनावी चंदे ने तो सरकार के कदमों को तानाशाही की ओर ही बढ़ाया है।

जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 29 ए के तहत कोई भी पंजीकृत राजनीतिक दल इलेक्टोरल बान्ड स्वीकार कर सकता है जिसने लोकसभा या विधानसभा के अपने पिछले चुनाव में कम से कम एक फीसदी वोट प्राप्त किए हों। हां उसे वह बान्ड अधिकृत बैंक के खाते के माध्यम से ही भुनाना होगा तथा उसे पखवाड़े भीतर अपने रजिस्टर्ड बैंक खाते में जमा करने की अनिवार्यता है।

संविधान पीठ द्वारा पारित निर्णय के अनुसार स्टेट बैंक 6 मार्च तक खरीदे गए इलेक्टोरल बान्डस की सारी जानकारी चुनाव आयोग के साथ साझा करेगा और चुनाव आयोग सारी जानकारी अपनी बेबसाइट पर अपलोड करेगा उसी के बाद ही आम आदमी को पता चलेगा कि किस - किसने किस - किस पार्टी को कितना - कितना गुमनामी राजनीतिक चंदा दिया है। फिलहाल तो यही जानकारी आम आदमी के पास है कि भाजपा को सर्वाधिक चंदा मिला है। चुनाव में खर्चों और पारदर्शिता पर नजर रखने वाली संस्था असोसिएशन फार डेमोक्रेटिक रिफार्म्स (एडीआर) की रिपोर्ट के मुताबिक 2022-23 में कार्पोरेट चंदे की तकरीबन 90 फीसदी राशि भाजपा को मिली है। तभी तो भाजपा ने बेशर्मी और तानाशाही की सारी हदें पार करते हुए ऐड़ी से चोटी तक का जोर लगाया कि उसके चंदाखोरी की जानकारी आम आदमी को न होने पाए यहां तक कि मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट तक में इस बात को कहा कि "आम आदमी को यह जानने का अधिकार" नहीं है। यहां तक कि अपने जमीर को सरकार के कदमों तले रख चुके गोदी मीडिया घराने भी मोदी सरकार की हां में हां मिलाते हुए नजर आये।

अमृत काल के नाम पर देश के साथ अन्याय - इलेक्टोरल बान्ड मतलब मोदी के भृष्टाचार का गोरखधंधा - इस तरह की हेड लाईनें भी सोशल मीडिया पर नजर आ रही है। तो सवाल उठता है कि खुद को राष्ट्रवादी कहने वाली मोदी सरकार का चरित्र इतना खतरनाक और देशविरोधी कैसे हो सकता है ? मोदी सरकार चंदादाताओं के नाम छिपाना चाहती है आखिर क्यों ?

अब तो पीएम केयर फंड भी असंवैधानिकता के दायरे में आता दिख रहा है क्योंकि इसकी जानकारी देने के संबंध में भी मोदी सरकार यही राग अलापती रहती है कि इसे जानने का अधिकार आम आदमी को नहीं है। क्या सुप्रीम कोर्ट पीएम केयर फंड की जानकारी आम आदमी तक साझा करवाने के लिए स्वमेव संज्ञान लेगा ?

अश्वनी बडगैया अधिवक्ता

स्वतंत्र पत्रकार

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