नव बसंत लाने की तैयारी में दिख रही कांग्रेस मध्यप्रदेश से हुआ श्री गणेश असल फायदा तभी होगा जब शिखर के भी बूढ़े दरख्त हटेंगे वरना फिर तो..........
कटनी। 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को सत्ता तक पहुंचाने में युवा ज्योतिरादित्य सिंधिया का भी अहम रोल था मगर जब सत्ता की चाबी सौंपने की बारी आई तो वह दे दी गई बुजुर्ग कमलनाथ के हाथ। युवा लौ पर बुझते दिये का पहरा बैठा दिया गया। जब मध्यप्रदेश से राज्यसभा में एक मेम्बर भेजने की बारी आई तो फिर एकबार युवा शक्ति को दरकिनार कर उम्रदराज दिग्विजय सिंह के नाम पर मुहर लगा दी गई। जिसका ही परिणाम था डेढ़ साल बाद लगातार अपमानित हो रहे ज्योतिरादित्य की बगावत, कमलनाथ की सरकार का गिरना और भाजपा की ताजपोशी।
ऐसा नहीं था कि इसकी जानकारी आलाकमान को नहीं थी। 2020 में चोट खाने के बाद भी 2023 में होने वाले विधानसभा चुनाव के मद्देनजर कांग्रेस ने तो कोई सबक नहीं सीखा न ही कोई कारगर तैयारी की। प्रदेश की कमान बसंत को आने से रोकने वाले दो उम्रदराज कमलनाथ और दिग्विजय सिंह के हाथों में ही रही। विधानसभा चुनाव के दावेदारों के लिए भिन्न-भिन्न तरीके से सर्वे कराने की ड्रामेबाजी भी की गई। मगर अंतिम समय में सारी सर्वे रिपोर्टिंग (जनभावनाओं) को दरकिनार कर उन्हीं बासे - तिबासे चेहरों को मैदान में उतारा गया जिन्हें पहले ही जनता नकार चुकी थी। यहां तक कि कांग्रेस ने 2018 में खोई हुई सीटों पर समय से पहले टिकिट घोषित करने के बजाय अंतिम समय में पराजित उम्मीदवारों को ही फिर से टिकिट दे दी। नतीजा सबके सामने है कांग्रेस 66 सीटों पर सिमट कर रह गई।
जैसा कि अमूमन होता है पराजय के तत्काल बाद हाईकमान को प्रदेश अध्यक्ष का इस्तीफा सौंपना। उसकी भी औपचारिकता नहीं निभाई गई। चर्चा तो यहां तक है कि राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़के ने कमलनाथ को अध्यक्षीय पद छोड़ने को कहा मगर कमलनाथ ने इस्तीफा नहीं दिया। जिसे आलाकमान ने गंभीरता से लिया और आखिरकार कमलनाथ को पद से हटाते हुए तेजतर्रार युवा नेता जीतू पटवारी के हाथों प्रदेश में कांग्रेस की नाव को खेने की पतवार सौंप दी है। चुनाव के दौरान कमलनाथ के द्वारा जिस तरह से अनुभवहीन, प्रभावशाली जिलाध्यक्षों की नियुक्ति की गई उसने भी कांग्रेस की हार में चार चांद ही लगाये हैं।
नव नियुक्त प्रदेश अध्यक्ष के सामने चुनौतियों की भरमार है। लोकसभा चुनाव भी मुहाने पर दस्तखत दे रहा है। इतने कम समय में जीतू पटवारी मरणासन्न पड़ी प्रदेश कांग्रेस में कोई चमत्कारिक जान फूंक पायेंगे कहना जल्दबाजी होगी। जीतू को तो सबसे पहले जिले की बागडोर ऐसे समर्थवान युवाओं के हाथ में देने की चुनौती है जो जनता के मन में कांग्रेस को फिर से स्थापित कर सके।
कुछ ऐसा ही फैसला राजस्थान में भी करना पड़ेगा गहलोत को लेकर। वहां की सत्ता गवांने में अशोक गहलोत द्वारा सचिन पायलट को बार बार नीचा दिखाने की कोशिश भी जिम्मेदार है। यहां भी उम्रदराज गहलोत को हटाकर बसंत खिलाने की जरूरत दिखाई देती है।
कांग्रेस के अतीत को देखा जाय तो शिखर में भी युवाओं को नजरअंदाज ही किया गया है। कांग्रेस के वर्तमान राष्ट्रीय अध्यक्ष पर नजर डालें तो मल्लिकार्जुन खड़गे ही 81 बसंत पार कर चुके हैं। कांग्रेस ने लगातार हो रहे परिवारवादी हमले से निजात पाने के लिए चुनाव कराया था जिसमें गांधी परिवार के किसी भी सदस्य ने दावेदारी नहीं की थी । मुकाबला अधेड़ शशि थरूर और बुजुर्गवान मल्लिकार्जुन खड़गे के बीच था। जिसमें कुल 9385 प्रतिनिधि वोटों में से मल्लिकार्जुन खड़गे को 7897 तथा शशि थरूर को 1072 वोट मिले और मल्लिकार्जुन खड़गे अध्यक्ष बन गये।
इस चुनाव को लेकर भी कई बातें सामने आईं। शशि थरूर ने कहा था कि वे असहमति के उम्मीदवार नहीं बल्कि बदलाव के उम्मीदवार हैं। यह भी कहा गया था कि खड़गे एक प्रतिष्ठान के उम्मीदवार हैं । चुनाव के प्रतिनिधियों पर सत्ता का पक्ष लेने का दबाव था। राज्यों में पीसीसी द्वारा अवरोध पैदा किए जाने के भी आरोप लगे थे।
शशि थरूर को मिले 1000 से ज्यादा वोट यह बताने के लिए पर्याप्त हैं कि कांग्रेसियों में बदलाव की भूख है या यूं भी कहा जा सकता है कि यथास्थिति के खिलाफ नाराजगी है। यह अलग बात है कि 1072 बदलाव के पक्षधरों में बदलाव की बयार को आगे ले जाने का साहस नहीं था और ना ही है। एकतरफा मुकाबला और राजवंश के अस्सी वर्षीय अनौपचारिक, अधिकारिक उम्मीदवार की व्यापक जीत ने यथास्थिति (मरणासन्न पार्टी) को ही मजबूत किया है।
सबको पता था कि वास्तविक निर्णय लेने की शक्ति कहां है। चुनाव की नाटकीयता और परिणाम, आंतरिक कलह से ग्रसित कांग्रेस की छबि, नवीन कल्पनाओं से कोसों दूर, नये भारत के साथ तालमेल और कदमताल करने में असमर्थ सी हो चुकी कांग्रेस को बूढ़े दरख्त कहां ले जाकर डुबोयेंगे सहज ही दिखाई दे रहा है ठीक उसी तरह जैसे "होनहार पूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं"।
इसके पहले भी ऐसा ही कुछ हो चुका है कांग्रेस में। 2000 में जितेंद्र प्रसाद की सोनिया गांधी के हाथों पराजय। 1997 में सीताराम केसरी द्वारा शरद पवार और राजेश पायलट को दी गई शिकस्त।
दिसम्बर 2017 से जुलाई 2019 तक कांग्रेस की बागडोर जरूर युवा हाथों में रही जब गांधी परिवार के ही राहुल गांधी की ताजपोशी राष्ट्रीय अध्यक्ष की कुर्सी पर की गई थी। मगर उस जिम्मेदारी को निभाने में खुद को असहज महसूस करते हुए राहुल गांधी ने पद त्याग कर दिया था जबकि उसके सामने पद छोड़ने का न तो दबाव था न ही कोई चुनौती।
अश्वनी बडगैया अधिवक्ता
स्वतंत्र पत्रकार
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