आज भी कांग्रेसी 1884 वाली कांग्रेस को बंदरिया की माफिक मरे हुए बच्चे को छाती से चिपटाये हुए है !

कटनी। हाल ही में कांग्रेस पार्टी ने 139 वां स्थापना दिवस मनाने के समाचार प्रसारित किए हैं। मगर यह समझ में नहीं आया है कि कांग्रेस पार्टी ने कौन सी कांग्रेस का स्थापना दिवस मनाया है। उस कांग्रेस का जिसकी स्थापना 28 दिसम्बर 1884 को विदेशी मूल के व्यक्ति एलेन ऑक्टेवियन ह्यूम (ए ओ ह्यूम) की प्लानिंग और वायसरॉय लॉर्ड डफरिन के दिमाग की नींव पर खड़ी की गई थी या उस कांग्रेस की जिसे 84 साल बाद 1969 में स्वर्गीय जवाहर लाल नेहरू की पुत्री इंदिरा ने 12 नवम्बर 1968 को ध्वस्त कर 1969 में कांग्रेस (आर) बनाई थी या फिर उस कांग्रेस की जिसे इंदिरा ने 1978 में बनाया था कांग्रेस (आई)।

28 दिसम्बर 1884 को एलेन ऑक्टेवियन ह्यूम (ए ओ ह्यूम) की प्लानिंग और वायसरॉय लॉर्ड डफरिन के दिमाग की नींव पर खड़ी की गई कांग्रेस पार्टी नामक इमारत आज़ाद भारत में भी 1969 तक खड़ी रही । खास बात यह है कि विदेशी व्यक्तियों के दिमाग और प्लानिंग पर बनी कांग्रेस की लगाम हमेशा भारतीय मूल के व्यक्तियों के हाथ में रही। उस पार्टी ने स्वतंत्र भारत में राजनीतिक पार्टी में तब्दील होने के बाद दो बैलों की जोड़ी चुनाव चिन्ह पर चुनाव जीत कर जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में देश की सरकार भी सम्हाली थी।

कांग्रेस में चल रहे झंझावात से निजात पाने तथा अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए इंदिरा ने 12 नवम्बर 1968 को 84 वर्षीय वयोवृद्ध कांग्रेस पार्टी को ध्वस्त करते हुए 1969 में कांग्रेस (आर) नामक नयी पार्टी बनाई। जिसे नया चुनाव चिन्ह दिया गया" गाय - बछड़ा" । जिसने नये चुनाव चिन्ह पर चुनाव लड़ कर अच्छी खासी सीटें जीती और दिल्ली की कुर्सी पर कब्जा जमाया। कांग्रेस (आर) की लगाम इंदिरा ने खुद थामने के बजाय पी मेहुल, जगजीवनराम, शंकर दयाल शर्मा, देवकांत बरुआ को थमाई।

1975 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने जब इंदिरा के चुनाव को अवैध करार दिया तो इंदिरा ने अपनी कुर्सी (प्रधानमंत्री पद) को बचाने के लिए देश भर में आपातकाल लागू कर दिया। आपातकाल के बादल छंटने के बाद 1977 में हुए आम चुनाव में कांग्रेस (आर) को भारी कीमत चुकानी पड़ी। तब कांग्रेस (आर) के ही कुछ नेताओं ने इंदिरा को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाने की साजिश रची। जिसकी भनक लगते ही इंदिरा ने खुद की बनाई कांग्रेस (आर) नामक बिल्डिंग को रिमाल्ड करते हुए कांग्रेस (आई) नामकरण कर दिया तथा चुनाव चिन्ह गाय - बछड़ा की जगह चुनाव चिन्ह लिया "हाथ का पंजा" । हां इस बार इंदिरा ने 1969 वाली गलती नहीं दुहराई। इस बार पार्टी की लगाम इंदिरा ने अपने हाथ रखी जिसे ताउम्र नहीं छोड़ा।1977 में भारी बहुमत लेकर दिल्ली की कुर्सी पर बैठी जनता पार्टी जब अपने ही झंझावातों से बिखर गई तो उसके बाद हुए आम चुनाव में करिश्माई नेतृत्व से लबरेज इंदिरा ने कांग्रेस (आई) को बहुमत के साथ दिल्ली के तख्त पर बैठाया।

कायदे से तो कांग्रेस को अपनी 46 वीं वर्षगांठ मनानी चाहिए मगर न जाने क्यों आज भी कांग्रेसी 1884 वाली कांग्रेस को बंदरिया की माफिक मरे हुए बच्चे को छाती से चिपटाये हुए है ! जबकि सोचने वाली बात ये है कि जिस कांग्रेस का सूरज 84 साल तक चमकता रहा उसे इंदिरा ने क्यों डुबोया ?  जिस कांग्रेस को इंदिरा ने 1969 में जन्मा उसकी नौवें साल ही हत्या क्यों की ? इसका एक ही जबाव है इंदिरा का महत्वाकांक्षा और  अहम । फिर भी अपने करिश्माई नेतृत्व में इंदिरा ने जिस नई नवेली कांग्रेस को दिल्ली की कुर्सी पर बैठाया वह यतीम क्यों हुई इंदिरा के बाद ?

भंवर से निकलने हाथ - पैर मार रही कांग्रेस

लगातार गर्त में जा रही कांग्रेस खुद को सम्हालने के लिए नित नए प्रयोग कर रही है। दक्षिण से उत्तर तक की गई भारत जोड़ो यात्रा के बाद अब पूर्व से पश्चिम तक भारत न्याय यात्रा की तैयारी की जा रही है। इसी बीच (पंच स वाले मूलमंत्र) "संघर्ष, समन्वय, सक्रियता, संकल्प, संवाद" को पूरा करने "डोनट फार देश" अभियान चलाया जा रहा है। जिससे "मोर पब्लिक फंड - मोर पब्लिक पार्टिसिपेशन" के लक्ष्य तक पहुंचा जाय। मगर फंड मिलने की जिस तरह की खबरें आ रही हैं उन पर विश्वास किया जाय तो यही कहा जा सकता है कि "ऐसै कैसे मजबूत होगी कांग्रेस"

पतंग कटते ही मांझा बदलने लगे भाजपाई और कांग्रेसी

       कुर्सी छोड़ दरी पर लौटी कांग्रेस

इन दिनों "चढ़ते सूरज को प्रणाम" और "गिरगिट से जल्द रंग बदलने" का नजारा मध्यप्रदेश में भाजपा और कांग्रेस दोनों पार्टियों में दिखाई दे रहा है। भाजपा में निजाम और कांग्रेस में सूबेदार बदलते ही शिवराज सिंह चौहान तथा कमलनाथ के हालात "बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले" वाले हुए। भाजपा ने मध्यप्रदेश में बड़ी जीत हासिल कर वजीर को निजाम बनाया तो कांग्रेस ने करारी हार के बाद गुटीय समीकरण में पटरी न बैठाने वाले के हाथ में पार्टी की डोर थमा दी। फिर क्या था पोस्टरों तक के सारे समीकरण बिगड़ गये। दोनों पार्टियों के भक्तों का परिक्रमा मार्ग ही बदल गया। कांग्रेस ने प्रदेश प्रभारी बदला तो प्रदेश प्रभारी ने नई जमावट के लिए प्रदेश की कार्यकारिणी ही भंग कर दी।

अश्वनी बडगैया अधिवक्ता

स्वतंत्र पत्रकार

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