चुनावी भंवर से निकलने आत्ममंथन का समय, अंतिम पायदान पर खड़े देवतुल्यों की भावनाओं से खिलवाड़ बंद होना चाहिए

टनी। कटनी जिले की विजयराघवगढ़ और मुडवारा विधानसभा क्षेत्र में इन दिनों भाजपा के कुछ पूर्व विधायक पार्टी हाईकमान द्वारा किए जा रहे  उपेक्षात्मक रैवेये के खिलाफ की गई बयानबाजी को लेकर चर्चाओं में हैं। जिसकी वजह से वास्तविक रूप से उपेक्षित हो रहे भाजपा हो चाहे कांग्रेस दोनों ही पार्टियों के खांटी कार्यकर्ताओं की आंतरिक पीड़ा नक्कारखाने में तूती की आवाज़ की तरह गुम सी होकर रह गयी है।


भाजपा के बड़े नेताओं को समय - समय पर कार्यकर्ताओं को देवतुल्य, अतुलनीय, पार्टी की रीढ़ जैसे भावनात्मक ब्लैकमेलिंग वाले शब्दों से नवाजते हुए देखा जा सकता है। खासतौर पर तब जब चुनावी नैया को पार लगाना होता है। यह अलग बात है कि चुनाव होते ही देवतुल्यों की अतुलनीय समर्पण शक्ति को ध्यान में रखकर उनको मझधार में गोते लगाने के लिए छोड़ दिया जाता है।

और जहां पार्टी पर आयातित विपरीत विचारधारा वालों ने कब्जा कर पार्टी की विचारधारा को ही बदल दिया हो तो वहां के मूल कार्यकर्ताओं की उपेक्षित पीड़ा का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। ऐसा ही कुछ हो रहा है  इन दिनों इन दोनों विधानसभा क्षेत्रों में। जहां देवतुल्यों को तो छोड़िए कुछ ऊपर उठ चुके लोगों के द्वारा ही अपनी पूछ-परख नहीं होने का रोना रोया जा रहा है।


उनका असंतोष तत्काल परम संतोष में बदल सकता है यदि वे यह स्वीकार कर लें कि पार्टी की बागडोर अब विस्तारवादी विचारधारा वाले उन हाथों में आ गई है जो किसी भी हद तक गिर कर नालायक समझौते भी कर सकते हैं। पार्टी की रीति - नीति से सहज ही अंदाजा होता है कि पार्टी को अब सैध्दांतिक विचारधारा वालों की जरूरत नहीं है। जब पार्टी स्तंभ अटल-आडवानी-जोशी को दरकिनार कर सकती है तो बाकी किस खेत की मूली हैं।

चूंकि उपेक्षात्मक रवैये की हवा का बहाव विजयराघवगढ़ विधानसभा क्षेत्र के भाजपाई दुखियारों से हुआ है तो विजयराघवगढ़ विधानसभा क्षेत्र के कांग्रेसी कार्यकर्ताओं की पीड़ा को भी नजर अंदाज करना नाजायज होगा।


वैसे तो कांग्रेस ने कभी भी अपने कार्यकर्ताओं को सार्वजनिक तौर पर देवतुल्य नहीं कहा है फिर भी उससे कम भी नहीं आंका है। कांग्रेसियों की एक खूबी है कि वे वटवृक्ष की परिक्रमा करने के आदी हैं बजाए खुद का अस्तित्व बनाने के। विजयराघवगढ़ में भी कांग्रेसियों के यही हाल थे। क्षेत्र के सारे कांग्रेसी वटवृक्ष बन चुके स्वर्गीय सतेन्द्र पाठक की परिक्रमा करते रहे। जब वटवृक्ष ने अपनी टेहनी संजय को अपनी राजनीतिक सत्ता हस्तांतरित की तो कांग्रेसियों का सारा कुनबा उस टहनी के चारों ओर घूमने लगा।

जिस तरह से पीढियों की विचारधारा में स्वभाविक अंतर होता है यहां भी दिखाई दिया। जहां स्वर्गीय सतेन्द्र की राजनीतिक विचारधारा जमीन से जुड़ी हुई दिखाई देती रही वहीं संजय की राजनीतिक विचारधारा हवा-हवाई और अर्थ से जुड़ी हुई दिखाई दे रही है।

बहरहाल जब तक संजय कांग्रेस में था तब तक तो कांग्रेस के लिए सब ठीक-ठाक ही रहा। जैसे ही संजय ने अपनी निजी स्वार्थपूर्ति के चलते (कहा जाता है कि कटनी जिले में कांग्रेस ने सत्येन्द्र पाठक परिवार को जितना नवाजा है - कैबिनेट मंत्री - सबसे कम आयु में जिला पंचायत अध्यक्ष - महापौर - इतना शहर तो छोड़ ही दीजिये राज्य व देश में भी किसी परिवार को शायद ही नवाजा गया हो) कांग्रेस छोड़कर भाजपा का दामन थामा (कुछ तो मजबूरियां रही होगी वरना कोई इतना बेवफा नहीं होता) कांग्रेस आसमान से गिरकर जमीन पर आने लगी तो कुछ खांटी कांग्रेसियों ने उसे खजूर पर लटकाने में कामयाबी हासिल की। जिसमें अरविंद बडगैया, श्याम तिवारी, सी एल गर्ग, सुरेंद्र दुबे, नीरज अग्रवाल, स्व. बाला वर्मा, शाहिद हुसैन, संजय बिलौंहा, हरप्रसाद सोनी, विजय अग्रवाल, विकास पांडे, शहजाद हुसैन रिजवी, सरवर खान, संतोष तिवारी, उमाशंकर गुप्ता, अजय वर्मा जैसे नाम प्रमुख रूप से शामिल थे।

हताशा से भरी खजूर में लटकी कांग्रेस के सामने खांटी कार्यकर्ताओं को एकजुट बनाये रखने की चुनौती थी। तभी आ गया लोकसभा का चुनाव। कांग्रेस प्रत्याशी को विधानसभा क्षेत्र से मिले 16500 वोटों ने क्षेत्रीय कांग्रेसियों को संजीवनी दी।


संजय के पाला बदलने से हुए विधानसभा के उपचुनाव में जहां भाजपा ने अपने खांटी भाजपाईयों को दरकिनार कर दत्तक पुत्र बने संजय को प्रत्याशी बनाया वहीं कांग्रेस ने भी क्षेत्रीय कांग्रेसियों को महत्व न देते हुए कटनी निवासी विजेन्द्र मिश्रा को मैदान में उतारा। मतदाताओं ने लगभग अनाथ सी हो चली कांग्रेस के पाले में 36500 वोटों का सहारा देकर क्षेत्र को कांग्रेस विहीन होने से बचा लिया ।

2018 के विधानसभा चुनाव से ठीक पहले भारतीय जनता पार्टी की कद्दावर नेत्री पदमा शुक्ला ने भाजपा से बगावत कर कांग्रेस का हाथ थामा। जिसके पीछे उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा और पाठक परिवार से चली आ रही राजनीतिक प्रतिद्वन्द्विता को अहम कारण माना जाता है। पदमा शुक्ला के पाला बदलने पर भी यही कहा जाता है कि भारतीय जनता पार्टी ने पदमा शुक्ला की झोली इतनी भरी कि उसे छोटी पड़ जानी चाहिए थी मगर न जाने क्यों खाली रह गई। पार्टी में राष्ट्रीय स्तर तक पद नवाजी - कैबिनेट मंत्री दर्जा वाले पद पर ताजपोशी आदि-आदि । मगर यहां भी फिर वही कहना कि "कुछ तो मजबूरियां रही होगी वरना कोई इतना बेवफा नहीं होता" ।

कांग्रेस हाईकमान ने एकबार फिर क्षेत्रीय देवतुल्य कार्यकर्ताओं पर भरोसा जताने के बजाय नई-नवेली कांग्रेसी पदमा पर भरोसा करते हुए चुनाव मैदान में उतारा। एकबार फिर दोनों वही प्रतिद्वंद्वी आमने-सामने थे जो 2008 के विधानसभा चुनाव में जोर-आजमाईश कर चुके थे। बस फर्क सिर्फ इतना था कि दोनों की पार्टियां और झंड़े-डंड़े बदले हुए थे। आंतरिक शिकवा-शिकायतों को दरकिनार कर कांग्रेसियों ने कांग्रेस को जिंदा रखने की कोशिश की। भले ही कांग्रेस चुनाव हार गई मगर वोटों की गिनती को बढ़ाते हुए 68500 पर लाकर मतदाताओं का विश्वास हासिल करने में सफल रही।

अब एकबार फिर 2023 में विधानसभा चुनाव की चौसर बिछाने की तैयारी शुरू कर दी गई है। मुख्य प्रतिद्वंद्वी भाजपा और कांग्रेस ने अपने-अपने देवतुल्यों के साथ चिंतन-मनन की औपचारिक शुरुआत भी कर दी है।

देवतुल्यों के साथ ही जनार्दन भी सोच रहे हैं कि क्या पार्टियों के हाईकमान इस बार मूलवासियों (खांटी कार्यकर्ताओं) में से किसी एक पर भरोसा जता कर मैदान में उतारेंगे या फिर वही घिसे-पिटे चल चुके आयातित चेहरों पर दांव लगायेंगे ।

जहां तक कांग्रेस के हालात दिख रहे हैं तो पार्टी हाईकमान ने जिन लोगों के हाथ जिले की कमान सौंपी है वे उतने सक्षम तो कतई नहीं लग रहे हैं कि वे चुनावी नैया पार लगा पायेंगे । जिसका टेलर नगरीय निकायों के चुनाव में बखूबी दिख गया है। फिर भी कांग्रेस के पास विजयराघवगढ़ और मुडवारा विधानसभा क्षेत्र में खोने के लिए कुछ भी नहीं है। उसके लिए तो जैसे नाश वैसे ही सवा सत्यानाश। सब धन बाइस पसेरी।

इसलिए यदि कांग्रेस अपने खांटी कार्यकर्ताओं पर भरोसा जता कर किसी को भी मैदान में उतारती है तो चुनाव परिणाम चाहे जो आये हां तिल-तिल कर्क रोग का शिकार हो रही कांग्रेस को संजीवनी जरूर मिलेगी। आयेगा आम नहीं तो जायेगा लबादा।

अश्वनी बडगैया अधिवक्ता

स्वतंत्र पत्रकार

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