आजादी के अमृत महोत्सव साल में लोकशाही की अकाल मौत राजसी ठाठ-बाट से नाचते-गाते लौट आई राजशाही


न्यूज डेस्क।अक्सर सुनने को मिलता है  कि "समय का पहिया उल्टा घूमता है" 29 मई 2023 को नई संसद की बिल्डिंग के उद्घाटन समारोह में देखने को उस समय मिल गया जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लोकसभा स्पीकर की आसंदी के बगल में सेंगोल (राजदंड) को स्थापित कर दिया। राजशाही से मुक्ति पाने के लिए करोड़ों करोड़ लोगों की शहादत तब बेदाम बेगैरत कर दी गई जब नरेन्द्र मोदी द्वारा सेंगोल को संसद में स्थापित किया गया। लोकशाही को रौंद कर राजशाही अपने 75वें साल में एकबार फिर लौट आई है वह भी अपने पैरोकारों के ही हाथों। जिससे एक बात तो सच दिखी कि ऐसे ही नहीं कहा जाता भाजपा के आइडियल पितृ पुरुषों को जनता जनार्दन द्वारा अंग्रेजों का मुखबिर ।

नवीन संसद भवन के उद्घाटन को सफेदपोशों और भाटगिरी कर रहे चारण मीडिया द्वारा देशवासियों के सामने ऐसे पेश किया गया है जैसे सत्ता हस्तांतरण हुआ हो। कोई ये तो बताये किसने किसको सत्ता हस्तांतरित की है? सत्ता तो पुराने संसद भवन में भी नरेन्द्र मोदी के हाथ में थी और नये संसद भवन में भी 2024 के लोकसभा चुनाव होने तक नरेन्द्र मोदी के ही हाथ रहने वाली है।

हां एक मायने में जरूर सत्ता हस्तांतरित हुई है। नरेन्द्र मोदी से नरेन्द्र मोदी के हाथ - वह है जहां पुराने संसद भवन में नरेन्द्र मोदी के हाथ में लोकशाही की सत्ता थी अब उसे नये संसद भवन में नरेन्द्र मोदी ने सेंगोल (राजदंड) स्थापित कर देश में राजशाही का आगाज कर अपने ही हाथों लोकशाही सत्ता को दफन कर अपने ही लिये अपने ही हाथ राजशाही सत्ता का हस्तांतरण कर लिया है। मतलब राजशाही लोकशाही के कांंधे चढकर (राजशाही) फिर से कायम होने में कामयाब हो गई है। जिसे निश्चित रूप से देश को राजशाही से मुक्त कराने वाले शहीदों की शहादत का अपमान ही कहा जाएगा।

संसद में राजशाही का प्रतीक सेंगोल (राजदंड) स्थापित होते ही उसका असर भी तब साफ - साफ दिखाई दिया जब यौन उत्पीड़न का आरोपी (जिस पर नाबालिक तक के यौन उत्पीड़न का आरोप है) नई संसद भवन के भीतर बतौर माननीय हाजिर रहा और बाहर सड़क पर न्याय मांग रहे यौन उत्पीड़ितों को रौंद कर राजशाही का जीवंत चित्रण करते हुए पुलिस कर्मी दिखाई दिए। कहा जा सकता है कि अभी तो ए आगाज है और इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि अंजामे गुलिस्तां क्या होगा।

नये संसद भवन का उद्घाटन किसके हाथों हो नरेन्द्र मोदी या फिर महामहिम राष्ट्रपति। इस पर पक्ष - विपक्ष नूरी आरोप-प्रत्यारोप करते रहे। कुछ सिरफिरे तो सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंच गये। मगर नतीजा तो वही आया जो पहले से तय था।

तिलस्मी रथ पर सवार होकर सातवें आसमान पर उड़ रहे नरेन्द्र मोदी को आयोजन में न तो महामहिम राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू को बुलाना था न ही उप राष्ट्रपति जगदीप धनखड को और बुलाया भी नहीं।

राष्ट्रपति - उप राष्ट्रपति को बुलाने ना बुलाने की उपापोह में, भी इंसानियत के नाते जिसे नहीं भुलाना चाहिए था उसी को भुला कर, इंसानियत को कलंकित कर बैठे नरेन्द्र मोदी - वह वही शख्सियत है जिसने नरेन्द्र मोदी की मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक की राह में आने वाले हर कंटक दूर किया - लालकृष्ण आडवाणी।

लेकिन उनके बारे में किसी ने एक शब्द भी नहीं कहा जो नरेंद्र मोदी के गुरु भी कहे जाते हैं। यह वही शख्सियत है जिसने गोधरा कांड के बाद जब तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी और उनकी टीम नरेंद्र मोदी को हटाने तत्पर थी तब नरेन्द्र की पैरवी करते हुए उन्हें जीवनदान दिलाया था।

परंतु आज नई संसद के उद्घाटन कार्यक्रम में भारतीय जनता पार्टी के ऐसे पित्र पुरुष को आमंत्रित ना करने से ऐसा दर्शित हो रहा है कि उन्हें जीते जी ही श्रद्धांजलि प्रदान कर दी गई है।

इससे बड़ी इंसानियत की नमकहरामी कोई दूसरी हो नहीं सकती। जिसकी भरपाई सार्वजनिक रूप से भी लालकृष्ण आडवाणी को साष्टांग दण्डवत करके क्षमा मांग कर भी नहीं की जा सकती है।

फिलहाल लाल कृष्ण आडवाणी की आहत हुई भावनाओं को सादर श्रद्धांजलि तथा योग्य गुरु के योग्य शिष्य को अकेले उद्घाटन रूपी रथ को संचालित करने के लिए अनेक साधुवाद तो दिया ही जाना चाहिए।

अश्वनी बडगैया अधिवक्ता

स्वतंत्र पत्रकार

No comments

Powered by Blogger.